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80 साल का कवि या कुख्यात नक्सली, कौन है वारवरा राव? पढ़ें पूरा इतिहास

NewsGram Desk

भीमा कोरेगाँव हिंसा में आरोपी और कथित सामाजिक कार्यकर्ता व कवि के रूप में जाने जाने वाले वारवरा राव आज काफी चर्चा में हैं। भीमा कोरेगाँव हिंसा मामले में यूएपीए कानून के तहत, करीब 2 साल से जेल में बंद वारवरा राव, कोरोना संक्रमित पाएँ गए हैं, जिसके बाद वामपंथी समर्थकों के साथ कथित बुद्धिजीवियों ने मानवता के आधार पर उनकी रिहाई की मांग शुरू कर दी है। भाजपा के राजनीतिक विरोधियों ने वारवरा राव के समर्थन में सरकार पर निशाना साधते हुए, राव पर लगाए गए इल्ज़ाम को बेबुनियाद बताया है। 

कौन है वारवरा राव? 

वारवरा राव 80 साल के एक कथित सामाजिक कार्यकर्ता और कवि हैं। रेवोल्यूशनरी राइटर्स असोशिएशन(RWA) के संस्थापकों में से एक नाम वारवरा राव का भी है। वारवरा राव की RWA, कहने को तो कथित क्रांतिकारी लेखकों का एक समूह है, लेकिन इस संगठन को भारत के नक्सली/माओवादी मूवमेंट का चेहरा माना जाता है। 
वारवरा राव, इस वक़्त तलोजा सेंट्रल जेल, नवी मुंबई में भीमा कोरेगाँव हिंसा से जुड़े मामलों को लेकर 2 साल से जुडिसियल कस्टडि में हैं। इससे पहले, 10 फरवरी, 2005 को पावागड़ा में हुए माओवादी हमलों में भी वारवरा राव का नाम, मुख्य साज़िश कर्ता के रूप में आया था। इस हमले में करीब 8 लोग मारे गए थे, जिनमें 6 पुलिसकर्मी शामिल थे। 2019 में कर्नाटक पुलिस ने इस मामले में, वारवरा राव को येरवडा जेल से अपनी कस्टडि में लिया था। राव, उस वक़्त, कोरेगाँव हिंसा मामले को लेकर येरवडा जेल में जुडिसियल कस्टडि में थे।

क्या है भीमा कोरेगाँव हिंसा? 

पुणे के भीमा कोरेगाँव का इतिहास 200 साल पहले हुए एक युद्ध से जुड़ा है। 1 जनवरी 1818 को पेशवा और अंग्रेजों के बीच, इसी भीमा कोरेगाँव में युद्ध लड़ा गया था। जानकारी के मुताबिक, अंग्रेजों की सेना में उस वक़्त भारी मात्रा में दलित समुदाय से आने वाले लोग शामिल थे जबकि पेशवा की सेना, उच्च जाती के लोगों से भरी थी। इस युद्ध में पेशवा को दलित बहुल अंग्रेज़ों की सेना ने परास्त कर दिया था। 

भीमा कोरेगाँव के लोग इस युद्ध को आज भी पेशवा बनाम अँग्रेज़ की जगह, उच्च जाती बनाम दलित के रूप में देखते हैं। इस कारण 1 जनवरी को हर साल भीमा कोरेगाँव में दलित समुदाय के लोग इस घटना को याद कर गौरवान्वित महसूस करते हैं। ऊंची जाती पर दलितों की हुई इस जीत की 200वी वर्षगांठ मनाने के लिए 31 दिसम्बर 2017 को पुणे में एलगर परिषद कोणक्लेभ के नाम से एक बड़ा आयोजन किया गया था। इस आयोजन में विधायक जिग्नेश मेवानी, छात्र नेता उमर ख़ालिद जैसे वामपंथी विचारधारा के कई लोग शामिल हुए थे। 

एनआईए के दावे के अनुसार इस आयोजन में जिस प्रकार के भड़काऊ भाषणों का प्रयोग किया गया था उससे अगले दिन दलित और अन्य समुदाय के लोगों के बीच हिंसा भड़क गयी थी। इस हिंसा में कइयों के घायल होने के साथ एक व्यक्ति के मौत की भी ख़बर आई थी। 

इस घटना को लेकर महाराष्ट्र पुलिस की जांच में, "राजीव गांधी स्टाइल में प्रधानमंत्री मोदी की हत्या" की योजना का भी खुलासा हुआ था, जिसके बाद कई लोगों को गिरफ्तार किया गया था, जिनमें वारवरा राव, गौतम नवलखा के साथ कई और लोग शामिल थे। 

वारवरा राव का नक्सली प्रेम

भारत में प्रतिबंधित व दुनिया में चौथे स्थान पर आने वाले नक्सली आतंकवादी संगठन, सीपीआई (मार्कसिस्ट-लेनिन) का वारवरा राव मुखर रूप से समर्थन करते रहे हैं। उन्होने कई मचों पर ये खुद अपने बयान में कहा है की, भारत की संसदीय व्यवस्था पर उनका भरोसा नहीं है, और उसको उखाड़ फेंकना ही उनका मकसद है। राव का मानना है की, इस काम को करने के लिए भारत में चल रहा नक्सली आंदोलन ही एक मात्र उम्मीद है। 

नक्सलियों द्वारा की जाने वाली हिंसा को लेकर वारवरा राव ने रेडिफ को दिये एक इंटरव्यू में कहा था की, असली लोकतंत्र स्थापित करने के लिए उन्हे लड़ाई लड़नी पड़ेगी और लड़ाई बिना हथियारों के नहीं लड़ी जा सकती है। 

2011 में कोबरा और सीआरपीएफ़ की जाइंट ऑपरेशन में मारे गए नक्सली आतंकवादी किशनजी के भी समर्थन में वारवरा राव, उस वक़्त खड़े नज़र आए थे। राव ने किशनजी की मौत को राजनीतिक हत्या करार दिया था, जिसको लेकर, दी हिन्दू अखबार ने भी अपने लेख में लिखा था की, "नक्सलियों के हितैषी, वारवरा राव ने किशनजी की मौत को राजनीतिक हत्या बताया है"। 

रेडिफ को दिये गए एक इंटरव्यू में वारवरा राव से जब पूछा गया की आपकी पार्टी, पीपल्स वार ग्रुप (कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, मार्कसिस्ट-लेनिन), पुलिस और आम लोगों को क्यूँ मार डालती है। इसके जवाब में राव ने कहा था की, सारी दिक्कत ख़बरी को लेकर है। पार्टी को एक खबरी और हमारे अपने क्रांतिकारी में से एक को चुनना होता है। रेडिफ को दिये गए इस जवाब के साथ वारवरा राव ने अपने कॉमरेडों द्वारा की जाने वाली हत्याओं को भी सही ठहराया था। 

2017 में नक्सली हितैशी वारवरा राव ने मजदूरों का आह्वान पत्रिका को भी एक इंटरव्यू दिया था, जिसमें उन्होंने ये खुद कबूला था की वो एक नक्सली नेता है, जिसने नक्सलवाद को फैलाने में अहम भूमिका निभाई है। उसी इंटरव्यू में राव कहते हैं की देश को नवजनवाद की ज़रूरत है, और ऐसी स्थिति, केवल नक्सल आंदोलन से ही आ सकती है, जो सशस्त्र संघर्ष से ही संभव है। राव ने ये भी मानते हुए कहा है की, माओवादी जो वसूली करते हैं, वो सही है, क्यूंकी उसी पैसे से संगठन चलता है और उगाही के पैसों से ही हथियार खरीदे जाते हैं। इस इंटरव्यू में छपी बातों का वारवरा राव ने कभी खंडन नहीं किया है। 

2017 में इस पत्रिका को दिये गए इंटरव्यू को जांच एजन्सियों ने वारवरा राव के खिलाफ बखूबी इस्तेमाल किया है, क्यूंकी इस इंटरव्यू में वारवरा राव ने बिना किसी दबाव के, खुद इस बात को स्वीकार किया था की, वो नक्सली समर्थक और नक्सल आतंकवाद के संचालक हैं। 

वारवरा राव को रिहा करने को लेकर, आज चला टिवीटर पर वामपंथी आंदोलन 

ये पूरा आंदोलन वारवरा राव को एक कवि, और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में पेश कर उसकी आज़ादी की मांग कर रहा है। इससे पहले दिल्ली दंगों की आरोपी सफूरा ज़र्गर की आज़ादी के लिए भी इसी प्रकार की रणनीति का प्रयोग किया गया था। महिला कार्यकर्ता और गर्भवती बता कर उसे जमानत दिलवाने में ये सफल भी हुए थे, और यही कोशिश दोबारा की जा रही है। 

एक नक्सली हितैशी, जिसने खुद इन सभी इल्जामों को खुल कर स्वीकार किया है, उसे बुद्धिजीवियों का यह धड़ा उसे 80 साल का निर्दोष कवि साबित करने में लगा है।

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