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नेपाल और भारत की बढ़ती दूरियों का इतिहास और होने वाले नुकसान का विश्लेषण

NewsGram Desk

अभी हाल के दिनों में भारत और नेपाल के रिश्ते मे दरार सी नज़र आ रही है। आखिर ये विवाद है क्या? क्या वजह है जो नेपाल की मित्रता चीन से ज़्यादा गहरी होती जा रही है? कोशिश करते हैं पूरे विवाद को समझने की। 

नेपाल और भारत के रिश्ते के विवाद का कारण भारत और नेपाल की सीमा से लगा हुआ एक विवादित ज़मीन का टुकड़ा है, जिसे कई सालों से भारत और नेपाल अपना बताते रहा है। हालांकि समय दर समय इस मुद्दे को नेपाल उठाता रहा है, लेकिन इस मुद्दे पर आक्रमक रवैया न कभी भारत की तरफ से देखा गया है न ही नेपाल की ओर से।

इस मुद्दे पर अभी तूल पकड़ने की वजह

अभी हाल ही में इस मुद्दे ने फिर से तूल पकड़ लिया, इसका वजह बना लीपुलेख दर्रे पर भारत द्वारा निर्माण किया गया एक सड़क, जिसका उदघाटन भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने हाल ही में किया है। लेकिन इस उदघाटन के साथ ही नेपाल के विदेश मंत्रालय ने इस पर विरोध जताते हुए, उस इलाके को नेपाली भू भाग का हिस्सा बताया है। ऐसा क्यूँ हुआ, इसके पीछे की वजह जानने के लिए आपको इतिहास मे जाना पड़ेगा।

लीपुलेख दर्रे तक भारत की सड़क निर्माण परियोजना

भारत में हर साल तीर्थ यात्रा के लिए कई हिन्दू धर्म के लोग कैलाश मानसरोवर जाया करते हैं। कैलाश मानसरोवर तक पहुँचने के लिए जिन तीन अलग अलग रास्तों का इस्तेमाल किया जाता है वो सिक्किम, नेपाल और उत्तराखंड से हो कर गुज़रता है। इन तीनों रास्तों में उत्तराखंड से हो कर गुजरने वाला रास्ता बकियों के मुकाबले छोटा है और भारतीय सीमा के अंदर आता है, जिसकी वजह से भारत सरकार ने कैलाश मानसरोवर जाने वाले उत्तराखंड के रास्ते पर पथ निर्माण की परियोजना शुरू कर दी। इस परियोजना का मकसद तीर्थयात्रियों के सफर को आसान बनाना था। 

आपको बता दें की निर्माण पथ: घटियाबगढ़ से लीपुलेख दर्रा की लंबाई 80 किमी है, जिसे पैदल पार करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। लेकिन अब निर्माण पूरा होने के बाद इस पथ पर वाहनों की आवाजाही भी हो सकेगी। 

8 मई, 2020 को भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इस पथ का उदघाटन कर दिया है। 

नेपाल का दावा

रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा किए गए इस उदघाटन के बाद, नेपाल के विदेश मंत्रालय ने लीपुलेख दर्रे वाले हिस्से को नेपाल के भू भाग का हिस्सा बता का अपनी आपत्ति जताई है। हालांकि, भारत, नेपाल और चीन की सीमाओं से बिलकुल करीब मौजूद, लीपुलेख दर्रा हमेशा से भारत के मानचित्र का हिस्सा रहा है।
नेपाल के विदेश मंत्रालय ने 1816 में हुए सुगौली संधि के आधार पर ये दावा किया है। नेपाल द्वारा किए गए दावे के अनुसार काली नदी के पूरब मे पड़ने वाला पूरा हिस्सा नेपाल का है, जिसमे लीपुलेख, लिमपा धुरा और काला पानी शामिल है।

सुगौली संधि क्या है?

बात तब की है जब, भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी अर्थात अंग्रेजों का राज हुआ करता था, और नेपाल में गोरखा साम्राज्य के विक्रम शाह, राजा हुआ करते थे। हिमालय तक अपने साम्राज्य को बढ़ाने की महत्वाकांक्षा, 1814 के युद्ध का कारण बनी। युद्ध के अपने नतीजे हुए लेकिन उस युद्ध पर विराम, सुगौली संधि के ज़रिये लगाया गया, जिसके बाद भारत और नेपाल की नयी सीमा तय हुई। 
1816 में काली नदी को भारत-नेपाल की पश्चिमी सीमा घोषित की गयी। लेकिन इसके बाद भी भारत नेपाल के बीच सीमा विवाद शांत नहीं हो पाया। 

लीपुलेख दर्रे का विवाद

भारत के मुताबिक काली नदी की धाराएँ काला पानी गाँव में आकार मिलती है जिसकी वजह से नदी का उदगम  काला पानी ही माना जाना चाहिए, लेकिन नेपाल की राय इससे उलट है। नेपाल अपने दावे में काली नदी के उदगम स्थल को लीपुलेख दर्रा बताता है। नेपाल के मुताबिक, उदगम स्थल अगर लीपुलेख दर्रा है, तो उस क्षेत्र को नेपाल का ही हिस्सा माना जाना चाहिए।  इस परिकल्पना को, नेपाल अपना आधार बना कर लीपुलेख दर्रे पर अपनी दावेदारी ठोकता आया है। 

लेकिन भारत के अनुसार सुगौली संधि में मुख्य नदी को ही सीमा बताया गया है, और इसके अलावा उदगम या बाकी धाराओं जैसी बिंदुओं पर कोई चर्चा नहीं है। जिसके हिसाब से नेपाल का दावा निराधार माना जा सकता है।

आपको बता दें की सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा बनाए गए 1850 और 1856 के मानचित्रों को नेपाल अपने साक्ष्य के तौर पर रखता है, जिनमे काली नदी का उदगम काला पानी के उत्तर पश्चिमी दिशा में स्थित लिंपिया धुरा को बताया गया है। जिसके जवाब में भारत अपने 1875 का मानचित्र दिखाता है जिसमे काली नदी का उदगम स्थल काला पानी के पूर्व, मतलब भारत में दिखाई देता है। इसके अलावा भारत ने नेपाल को 1830 के टैक्स रिकॉर्ड भी दिखाए हैं जिसमे काला पानी को उत्तराखंड के पिथौरा गढ़ ज़िले का हिस्सा बताया गया है।
इन सब मे सबसे बड़ी उलझन ये है की सुगौली संधि के दस्तावेज़ कहीं भी मौजूद नहीं हैं।

नेपाल और भारत की बढ़ती दूरियाँ

नेपाल में अभी केपी शर्मा ओली की नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी की सरकार है। आपको बता दें की 2015 में  नेपाल ने अपने संविधान मे बदलाव किया था। इस संविधान मे बदलाव के बाद नेपाल मे रह रहे भारतीय मूल के निवासी(मधेशी), काफी खफ़ा नज़र आए थे, जिसके बाद सरकार के खिलाफ नेपाल में हुए विरोध प्रदर्शन भी देखे गए थे। मधेशीयों का कहना था की सरकार द्वारा लाए गए संविधान में उनके अधिकारों का खयाल नहीं रखा गया है। 

उस वक़्त बढ़ रहे विवाद के कारण भारत ने नेपाल से जुड़ी  सीमाओं को सील कर दिया था, जिसके कारण रोज़ मर्रा की चीजों के लिए भारत पर निर्भर रहने वाले नेपाल को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। नेपाल का दावा था की भारत ने ऐसी हरकत 'नेपाल को उसकी भारत पर निर्भरता' को याद दिलाने के मकसद से किया था। 

जब की भारत ने सामानों की आवाजाही रोकने का कारण,  नेपाल में हो रहे उग्र प्रदर्शन को बताया था।

दी लल्लनटॉप के एक विश्लेषण के अनुसार ऐसी घटनाओं के कारण कम्यूनिस्ट शासित नेपाल मे भारत विरोधी हवा बनती जा रही है, जिसका फायदा कम्यूनिस्ट शासित चीन को बेशक मिल सकता है। भारत से खराब होते रिश्तों के कारण नेपाल एक नए दोस्त की तलाश में है जिसका परिणाम अब नेपाल और चीन की बढ़ रही नज़दीकियों से आँका जा सकता है ।

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