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भारत की अमर वीरांगना ‘हाड़ी रानी’!

Shantanoo Mishra

'भारत' एक ऐसा देश है जहाँ महिलाओं को माँ दुर्गा के शक्ति के रूप में पूजा जाता है, जहाँ वीरांगनाओं ने अपने शौर्य के झंडे गाड़े हैं। उसी वीर भूमि भारत की एक और वीरांगना की गाथा आपके सामने लाया हूँ, जिन्होंने अपने पति को अपनी सौंदर्य से मोह भंग न हो, इसलिए अपना शीश रणभूमि में निशानी के तौर पर भिजवा दिया था। इन वीरांगना का नाम है 'हाड़ी रानी'। जिनकी गाथा को आज भी एक शौर्य प्रतीक के रूप में सुनाया जाता है।

हाड़ी रानी बूंदी रियासत के हाड़ा सरदार की बेटी थीं, जिनका विवाह मेवाड़ के सलूम्बर ठिकाने के रावल रतन सिंह चूंडावत से हुआ था। रावल चूंडावत से महज एक सप्ताह ही विवाह को हुआ था, और इसी बीच रावल को राणा राज सिंह का मुग़ल शासक औरंगज़ेब के खिलाफ युद्धभूमि में उतरने का फरमान मिला। इस समय रानी के हाथों में लगी मेहंदी का रंग भी नहीं सूखा था, विवाह के प्रेम को पूर्ण रूप से भी नहीं जिया था और रावल को युद्ध भूमि में उतरने का पत्र प्राप्त हुआ। 

राणा राज सिंह ने पत्र में लिखा था कि "हे वीर! अविलंब अपनी सैन्य टुकड़ी को लेकर औरंगजेब की सेना को रोको। मुसलमान सेना उसकी(औरंगजेब) सहायता को आगे बढ़ रही है। इस समय औरंगजेब को मैं घेरे हुए हूं। उसकी सहायता को बढ़ रही फौज को कुछ समय के लिए उलझाकर रखना है ताकि वह शीघ्र ही आगे न बढ़ सके। तुम इस कार्य को बड़ी कुशलता से कर सकते हो। यह एक खतरनाक काम है और जान की बाजी भी लगानी पड़ सकती है। किन्तु, मुझे तुम पर भरोसा है।"

रावल का मन विचलित हो उठा था, किन्तु 'कर्तव्य आगे भावनाओं का कोई महत्व नहीं' यह बात भी हाड़ी रानी को भलीभांति ज्ञात थी। जिस वजह से रानी ने रावल को उनके कर्तव्य और देश भक्ति के भावनाओं को ज्ञात कराते हुए युद्धभूमि में उतरने की ऊर्जा भरी।

रावल रतन सिंह को औरंगज़ेब पर आक्रमण के लिए राणा राज सिंह सिंह फरमान मिला। (काल्पनिक चित्र, Unsplash)

रावल रतन सिंह युद्ध भूमि के लिए कूंच कर चुके थे, किन्तु उनका मन अब भी पत्नी मोह से नहीं हट पा रहा था और इसलिए वह बार-बार हाड़ी रानी को याद कर रहे थे। इसी बीच रावल ने अपने विश्वसनीय दूत को रानी की एक निशानी लाने के लिए पुनः महल भेजा। जब हाड़ी रानी ने दूत से उसके आने का कारण पूछा, तब रानी समझ गईं कि रावल मेरे प्रेम मोह से नहीं हट पाए हैं। किन्तु, युद्ध भूमि में प्रेम और मोह दोनों दुश्मन से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं। इसलिए रानी ने वह कदम उठाया जिसकी न तो रावल ने कल्पना की थी और न ही निशानी लेने आए दूत ने। रानी ने दूत से कहा कि मैं तुम्हे एक ऐसी निशानी सौंप रही हूँ, जो रावल तक सजे थाल में जाए और साथ ही एक खत भी दे रही हूँ। इतना कहते ही हाड़ी रानी ने खत लिखा और खत लिखने के तत्पश्चात ही अपने तलवार से अपने ही हाथों खुद का सर धड़ से अलग कर दिया और राजा को प्रेम बंधनों से मुक्त कर दिया। 

पत्र में लिखा था कि "स्वामी, मैं आपको अपनी अंतिम और प्रिय निशानी भेज रही हूं। आपको सभी बंधनों से मुक्त कर रही हूं। अब आप निर्भीक होकर अपने कर्तव्य का पालन करें। हमारा मिलन अब स्वर्ग में ही होगा।"

रावल का दूत जिस समय रानी का शीश थाल में लाया उस समय रावल सन्न रह गए। उनके लिए अपनी मृत पत्नी का शीश देख पाना अमंभव हो रहा था। उन्होंने हाड़ी रानी को ऐसा करने पर कोसा, साथ ही खुद को भी कोसा कि क्यों वह युद्ध भूमि में आए। किन्तु जब रानी द्वारा लिखे खत को रावल में पढ़ा तब उन्हें अपने कर्तव्यों का ज्ञात हुआ। उन्होंने दुश्मनों को ही इस मृत्यु का दोषी माना और घायल मगर खूंखार सिंह की भांति मुग़ल सेना पर टूट पड़े। रावल के भीतर मानों हाड़ी रानी समा गई थीं जो अपने मृत्यु का प्रतिशोध मुग़लों से ले रही थीं। अंतिम क्षण तक रावल ने मुग़लों से लोहा लिया और उन्हें पीठ दिखाकर भागने पर मजबूर कर दिया। माना जाता है कि इस लड़ाई में विजय हाड़ी रानी की हुई थी और इसलिए हाड़ी रानी के लिए यह कविता बेहद प्रसिद्ध है जिसका एक अंश है कि-

' चूंडावत मांगी सैनाणी, सिर काट दे दियो क्षत्राणी' 

हाड़ी रानी के शौर्य के उपलक्ष में कई लोक-गीत और कविताएं प्रसिद्ध हैं, किन्तु आज के भावी भविष्य को न तो इस स्वर्ण इतिहास के विषय में ज्ञान है और न ही इस इतिहास को किसी भी किताबों में जगह मिली है। यही कारण है कि आज के युवाओं को मुग़लों की पुश्तें याद हैं किन्तु भारत के हिन्दू वीर-वीरांगनाओं के विषय में कोई ज्ञान नहीं।  

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