आज से तीन दशक पहले जब हजारों कश्मीरी पंडितों को अपना घरबार छोड़कर अन्य राज्यों को भागना पड़ा तो उनमें से कई लोग मुम्बई की मायानगरी में पहुंचे और बाला साहेब ठाकरे से मदद की गुहार की। ये वो लोग थे, जो कश्मीर में अपनी मौत से भाग रहे थे। अपने माता-पिता, पत्नी और बच्चों के साथ भागने को मजबूर हुये इन लोगों में से अधिकतर के पास अपने बदन पर पहने कपड़ों के सिवा कुछ भी नहीं था। अपनी जिंदगी बचाने की जदोजहद से जूझ रहे इन विस्थापितों को समझ में भी नहीं आ रहा था कि वे अपने भविष्य की नींव अब किस आधार पर रखेंगे।
महाराष्ट्र लेकिन उनके लिये ऐसा राज्य साबित हुआ जिसने उनके स्वागत में अपनी बांहें खोल दीं और उन्हें इस नयी जमीन पर अपनी जड़ें जमाने का मौका दिया। पुणे में सरहद नामक एक गैर सरकारी संगठन चलाने वाले संजय नाहर कहते हैं, उस वक्त रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल पी एन हुन की अगुवाई में कश्मीरी पंडितों का एक प्रतिनिधिमंडल शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे से मिला। प्रतिनिधिमंडल ने उनके सामने कश्मीरी पंडितों के पूरे हाल को बयान किया।
उन्होंने बाला साहेब से कहा कि वह अपने पद का इस्तेमाल करके कश्मीरी पंडितों को टेक्निकल और इंजीनियरिंग कोर्स में आरक्षण दें।
प्रतिष्ठित लेखक एवं पत्रकार राहुल पंडिता भी इसकी पुष्टि करते हुये बताते हैं कि कश्मीरी पंडितों के जेब में फूटी कौड़ी नहीं थी लेकिन उन्होंने बाला साहेब ने आर्थिक मदद नहीं मांगी बल्कि वे कुछ ऐसा चाहते थे जिसे उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद मिले और वे आत्मनिर्भर हो पायें।
कश्मीरी पंडितों के प्रतिनिधिमंडल को शिवसेना प्रमुख से मुलाकात कराने वाले कोई और नहीं बल्कि मौजूदा पार्टी प्रवक्ता संजय राउत हैं, जो उस वक्त युवा पत्रकार हुआ करते थे।
बाला साहेब तत्काल कश्मीरी पंडितों के इस प्रस्ताव पर सहमत हो गये जबकि विपक्षी दलों ने इस बात का माखौल भी उड़ाया। नाहर कहते हैं कि आरक्षण देकर बाला साहेब ने कश्मीरी विस्थापितों को विश्वास से भर दिया और इससे करीब सात आठ हजार लोगों को लाभ हुआ।
पंडिता कहते हैं कि बाला साहेब ने बिना किसी शर्त के ये मदद की थी और न ही उन्होंने कभी कश्मीरी पंडितों को वोट बैंक के रूप में देखा। यह उनका पूरी तरह से स्वार्थहीन कदम था। शिवसेना सांसद राउत उन दिनों की याद करते हुये कहते हैं कि जब पूरा देश आतंकवादियों के भय से चुप था तब मात्र बाला साहेब ने कश्मीरी पंडितों के मुद्दों पर बोला।
आज से तीन दशक पहले जब हजारों कश्मीरी पंडितों को अपना घरबार छोड़कर अन्य राज्यों को भागना पड़ा। (सांकेतिक चित्र, Unsplash)
उन्होंने बताया कि प्रतिनिधिमंडल जब बाला साहेब से मिला था तो उन्होंने कश्मीरी पंडितों को आत्मरक्षा के लिये हथियार देने की भी बात की लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया और शिक्षा में आरक्षण देने का आग्रह किया । बाला साहेब ने राज्य में कश्मीरी विस्थापितों को पांच प्रतिशत का आरक्षण दिया। उनका दर्द जितना शिव सेना समझ सकती है, उतना कोई नहीं समझ सकता है।
आतंकवादियों द्वारा दिसंबर 1992 में मौत ही घाट उतार दिये गये सामाजिक कार्यकर्ता एच एन वानचू का भी कहना है कि जब कश्मीरी पंडितों के पास अपना कहने के लिये कोई नहीं था, तब मात्र बाला साहेब ने उन्हें जीवन दिया। वानचू बताते हैं कि कई लोगों के पास कोई रुपया नहीं था, दोस्त नहीं था और वे महीनों से झुग्गियों में या गंदे मवेशीखानों में रह रहे थे। हमारा हमेशा से मानना था कि बच्चों के लिये शिक्षा जरूरी है लेकिन अपने घर से दूर उन्हें कैसे शिक्षित किया जाये, ये बहुत बड़ी चुनौती थी। अपने परिवार में लगभग सबको खो देने के बावजूद अमित वानचू अब भी कश्मीर में ही रहते हैं।
राहुल पंडिता और वानचू दोनों का कहना है कि केंद्र सरकार में या दुनिया भर की कंपनियों में जिन शीर्ष पदों पर कश्मीरी पंडित बैठे हैं, वह महाराष्ट्र सरकार की दयानतदारी के कारण संभव हो पाया है। वानचू कहते हैं कि बाला साहेब से प्रोत्साहित होकर पूरे महाराष्ट्र ने कश्मीरी पंडितों की मदद की। महाराष्ट्र में कितने ऐसे छात्र थे, जो अपना किराया नहीं चुका पाते थे लेकिन मकान मालिक चुपचाप उनका किराया माफ कर देते थे। उन्होंने बताया कि वह जब बाला साहेब से 1994 में मिले तो उन्हें यह जानकर ताज्जुब हुआ था कि उन्होंने कश्मीर नहीं छोड़ा था।
नाहर बताते हैं कि मुम्बई, पुणे, औरंगाबाद, नासिक और अन्य शहरों में कई एनजीओ भी कश्मीरी विस्थापितों की मदद के लिये आगे आये उन्हें भोजन तथा कपड़े मुहैया कराया गया। पंडिता और वानचू का कहना है कि बाला साहेब का ऋण हमेशा बना रहेगा और कश्मीरी विस्थापित हमेशा महाराष्ट्र को दूसरा घर मानेंगे। कश्मीर विस्थापितों के लिये आरक्षण देने की बाला साहेब की पहल अब काफी आगे बढ़ गयी है और केंद्र सरकार भी कई तरह के आरक्षण देकर इनकी मदद कर रही है। आईएएनएस{NM}