क्या भारत में दंगो को जन्म देना आसान है? क्या जिन्हें हम भाई कहते हैं उनके खिलाफ भड़काना चंद मिनटों का काम है? सवाल कई हैं और मगर जवाब देने वाले वो हैं जो पहले तो आग फ़ैलाने का काम करतें हैं और फिर उस आग में झुलसे लोगों को बचाने का काम करतें हैं। वह एक तबका जो अपनी जेब भरने का शौक रखता है और नकली आंसुओं से अमन बहाल रखने की मांग करता है।
विदेशों में भारत को दंगों का राष्ट्र कहते हैं, ऐसा इसलिए नहीं कि कोई दुश्मनी या ईर्ष्या है यह इसलिए कि यहाँ एक टिप्पणी से कइयों-कई गाड़ियों को आग लगा दिया जाता है, एक मैसेज से सैकड़ों की भीड़ एक जुट होकर उपद्रव का काम करती है।
CAA के विरोध में हुए प्रदर्शन में दंगाइयों ने बस को आग दिया था। (VOA)
11वीं कक्षा में पढ़ने वाले छात्र के फेसबुक पोस्ट से दंगे ने इतनी भयावह शक्ल ली कि 40 से ज़्यादा लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी और यह ज़्याद पुरानी नहीं बल्कि '2017' की घटना है। जब बिहार में राम नवमी के त्यौहार पर दो समुदायों में दंगे हो जाते हैं, यह चिंता का विषय हो जाता है।
हद तो तब होती है जब अंधभक्ति और गुमराह भीड़ एक जुट हो जाती है और इसका सबसे दर्दनाक उदाहरण है 2017 में पंचकूला, हरियाणा में हुआ दंगा जिस में 300 से भी अधिक लोग मरे थे, कारण यह था कि डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम को हत्या और दुष्कर्म मामले में कोर्ट ने सजा सुनाई थी।
मगर खास बात यह है कि इन सब में एक शब्द बड़ा जाना-पहचाना सा है और वह है 'माइनॉरिटी' या अल्पसंख्यक वर्ग, जिसका फायदा हर तरफ से लेने की कोशिश 'टोपी-कुर्ता' वाले भी करते हैं और कुछ बुद्धिजीवी जिन्हे एकता और विकास देखने से असंतुष्टि मिलती है वह भी करते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में कुछ ऐसी मानसिकता वाले शिक्षक भी हैं जिन्हे यह पढ़ाने में संतुष्टि मिलती है कि देशद्रोही हमारे हीरो हैं और आतंकवादी को फांसी देना गलत है और उस आवाज़ को बढ़ावा देने का काम हमारे नेता या फिल्म जगत में वामपंथी सोच रखने वाले करते हैं।
हाल ही में हाथरस मामले में एक टीवी चैनल ने चौकाने वाला खुलासा किया है। उनके स्टिंग ऑपरेशन में यह सामने आया है कि एक बड़ी विपक्षी पार्टी हाथरस के नाम पर दंगों को अंजाम देना चाहती है और इस मामले में कई गिरफ्तारियां भी हुईं है। अगर इनका यह षड्यंत्र सफल हो जाता तब न जाने कितनी जाने जातीं और न जाने कितनों को अँधेरे से जूझना पड़ता।
"हर कोई बस आग को देखता, महसूस करता है; पर न अंजाम देखता है, और न उन आंसुओं को जो उस आग से बहीं हैं…"