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Rabindranath Tagore Birth Anniversary: धीरे चलो, धीरे बंधु लिए चलो धीरे

NewsGram Desk

कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म 7 मई 1861 को कलकत्ता में हुआ था। वह अपनी रचनाओं के लिए विश्वभर में जाने जाते हैं। उन्हें अपनी महाकाव्य गीतांजलि की रचना के लिए वर्ष 1913 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया था। यह इसलिए खास है क्योंकि वह साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार जीतने वाले अकेले भारतीय हैं।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर को मुख्य रूप से भारत के राष्ट्रगान के रचनाकार के रूप में जाना जाता है। उनमें कवि के साथ दार्शनिक, नाटककार, चित्रकार एवं गीतकार की प्रतिभा भी समाहित थीं। गुरुदेव ने कई नाटक, गीतों और कविताओं की रचना की, आज उनके 160वें जयंती पर उनके द्वारा रचित कुछ कविताओं को पढ़ते हैं:

अगर प्यार में और कुछ नहीं….

अगर प्यार में और कुछ नहीं
केवल दर्द है फिर क्यों है यह प्यार ?
कैसी मूर्खता है यह
कि चूँकि हमने उसे अपना दिल दे दिया
इसलिए उसके दिल पर
दावा बनता है,हमारा भी
रक्त में जलती इच्छाओं और आँखों में
चमकते पागलपन के साथ
मरूथलों का यह बारंबार चक्कर क्योंकर ?

दुनिया में और कोई आकर्षण नहीं उसके लिए
उसकी तरह मन का मालिक कौन है;
वसंत की मीठी हवाएँ उसके लिए हैं;
फूल, पंक्षियों का कलरव सब कुछ 
उसके लिए है
पर प्यार आता है
अपनी सर्वगासी छायाओं के साथ
पूरी दुनिया का सर्वनाश करता
जीवन और यौवन पर ग्रहण लगाता

फिर भी न जाने क्यों हमें
अस्तित्व को निगलते इस कोहरे की 
तलाश रहती है ?

मेरे प्यार की खुशबू….

मेरे प्यार की ख़ुशबू
वसंत के फूलों-सी
चारों ओर उठ रही है।
यह पुरानी धुनों की 
याद दिला रही है
अचानक मेरे हृदय में
इच्छाओं की हरी पत्तियाँ
उगने लगी हैं

मेरा प्यार पास नहीं है
पर उसके स्पर्श मेरे केशों पर हैं
और उसकी आवाज़ अप्रैल के
सुहावने मैदानों से फुसफुसाती आ रही है ।
उसकी एकटक निगाह यहाँ के
आसमानों से मुझे देख रही है
पर उसकी आँखें कहाँ हैं
उसके चुंबन हवाओं में हैं
पर उसके होंठ कहाँ हैं …

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपने शिष्यों के साथ।(Wikimedia Commons)

आया था चुनने को फूल यहाँ वन में….

आया मैं चुनने को फूल यहाँ वन में
जाने था क्या मेरे मन में
यह तो, पर नहीं, फूल चुनना
जानूँ ना मन ने क्या शुरू किया बुनना
जल मेरी आँखों से छलका,
उमड़ उठा कुछ तो इस मन में ।

धीरे चलो….

धीरे चलो, धीरे बंधु,लिए चलो धीरे ।
मंदिर में, अपने विजन में ।
पास में प्रकाश नहीं, पथ मुझको ज्ञात नहीं ।
छाई है कालिमा घनेरी ।।
चरणों की उठती ध्वनि आती बस तेरी
रात है अँधेरी ।।
हवा सौंप जाती है वसनों की वह सुगंधि,
तेरी, बस तेरी ।।
उसी ओर आऊँ मैं, तनिक से इशारे पर,
करूँ नहीं देरी !!

साभार- कविता कोष(SHM)

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