उत्तर प्रदेश के दिल में क्या है ? यह एक ऐसा सवाल है जो आजकल उत्तर प्रदेश(Uttar Pradesh) में सभी के कानो में गूँज रहा है। अब चाहे वो सत्ताधारी भाजपा हो या फिर विपक्षी दल सपा। राज्य में सभी अपना-अपना वोटबैंक साधने में लग गए हैं। एक तरफ अखिलेश अपना पारम्परिक ओबीसी वोटबैंक साधने के लिए छोटे-छोटे दलों से गठबंधन कर रहे हैं, तो भाजपा अपना हिंदुत्व(Hindutva) का एजेंडा और मजबूत कर रही है। बात करें बसपा और कांग्रेस की, तो दोनों की हालत प्रदेश में एक जैसी है। एक तरफ बसपा को अरसा हो गया है प्रदेश में अपनी उपस्थिति दर्ज किये हुए, तो वहीं कांग्रेस भी पिछले कई दशक से प्रदेश की सत्ता से बाहर है।
कहावत है की दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। 2014 में यह कहावत सच हुई थी, जब उत्तर प्रदेश ने भाजपा(BJP) को केंद्र की गद्दी तक पहुंचाया था। तब राज्य की 80 लोकसभा सीटों में से 71 भाजपा के खाते में गई थी। ऐसा ही कुछ समीकरण 2017 के विधानसभा चुनाव मैं देखने को मिला जब भाजपा ने राज्य की 403 में से 303 सीटें जीत ली थी। तब समूचा विपक्ष एक तरफ था और भाजपा एक तरफ पर, मोदी लहर की आंधी में विपक्ष धराशाही हो गया था। बात करें 2019 के चुनाव की तो भाजपा को एक दफा फिर प्रदेश की जनता का आशीर्वाद भाजपा को प्राप्त हुआ और वो 2014 से बड़ी जीत दर्ज कर केंद्र की गद्दी पर काबिज़ हो गई।
यह तो बात रही पिछले तीन चुनावों की, पर इस बार प्रदेश में भाजपा की राह आसान नहीं है क्योंकि इस बार उत्तर प्रदेश में उसका सामना एक या दो नहीं बल्कि 6 पार्टियों से होने जा रहा है क्योंकि एक तरफ सपा उसके सामने सबसे कड़े प्रतिद्वंदी के तौर पर है तो वहीं बंगाल में खेला करने वाली ममता बनर्जी भी उत्तर प्रदेश के रण में उतर रही हैं। हैदराबाद में अपनी राजनीति चमकाने के बाद एआइएमआइएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी भी उत्तर प्रदेश में मुसलमानो का मसीहा बनकर चुनाव में उतरने को तैयार हैं। यहां गौर करने वाली बात यह है की इसका ज़्यादा नुक्सान सपा को होने वाला है क्योंकि मुसलमान वोटबैंक सपा का पारम्परिक वोटबैंक है लेकिन ओवैसी के चुनाव में उतरने से यह वोट बँट भी सकता है।
खैर यह सब तो वह आंकड़े हैं जिससे पता चलता है की इस दफा उत्तर प्रदेश में सियासी लड़ाई कितनी गहरी है। आइये एक विश्लेषण करते हैं की प्रदेश में इस बार किसका पलड़ा कितना भारी है –
भाजपा हमारे देश की ऐसी पार्टी है जिसने हिंदुत्व के मुद्दे को हमेशा बुलंद किया है। अन्य पार्टियां जोकि पिछड़ों की राजनीति करती है और ज़्यादातर हिंदुत्व के नाम पर भाग जाती हैं भाजपा इकलौती ऐसी पार्टी है जिसने सीना ठोक कर हिंदुत्व की राजनीति की है। विपक्ष भले ही भाजपा पर धर्म के नाम पर बांटने और पिछड़ों का अपमान करने का आरोप लगाता हो, लेकिन सत्य यही है की भाजपा कभी एक धर्म की राजनीति करने से नहीं कतराई है और उसने अपने साथ पिछड़े वर्ग की भी कई पार्टियों को जोड़े रखा है। 1992 में जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ तब केंद्र में पीवी नरसिम्हा राव की सरकार थी और राज्य में कल्याण सिंह की। तब कल्याण सिंह की सरकार को मानवाधिकार हनन के आरोप में बर्खास्त कर दिया गया था। कई भाजपा नेताओं को हिरासत में ले लिया गया, जिसमे मुरली मनोहर जोशी और लाल कृष्णा अडवाणी जैसे कद्दावर भाजपा नेता भी शामिल थे। तब से लेकर अब तक भाजपा ने फर्श से अर्श तक का सफर तय कर लिया है और अब तो केंद्र में भी उसकी सरकार है और राज्य में भी। राम मंदिर मुद्दा जोकि पिछले 500 साल से हमारे कानो के इर्द-गिर्द गूँज रहा था यह मुद्दा आज हल हो चुका है और यह चमत्कार भी भाजपा के शासनकाल में हुआ है। लेकिन यह तो चलिए वे मुद्दे हैं जो आस्था से जुड़ें हैं, असली वोट तो जनता काम पर देती है। पिछले डेढ़ साल में कोरोना ने हज़ारो घर उजाड़े, कई लोगो की रोज़ी-रोटी छीन गई तो कइयों ने अपनों को भी खो दिया, ऐसे में जनता भाजपा को दूसरा मौका देगी या नहीं ये देखने वाली बात होगी।
योगी आदित्यनाथ (VOA)
समाजवादी पार्टी(Samaajvadi Party) उत्तर प्रदेश में अपनी पिछड़ा वर्ग की राजनीति करने के लिए जानी जाती है। यादव और मुसलमान उसका परंपरागत वोटबैंक माना जाता है। 2012 में जब प्रदेश में उसकी सरकार बनी तो इसमें पिछड़े वर्ग का बहुत बड़ा योगदान था। अगर उत्तर प्रदेश का 2012 तक का इतिहास देख लें तो यहां सपा और बसपा का ही बोलबाला रहा है। बसपा तो ख़ैर आज के दिन में उतनी ताकतवर नहीं रह गई है लेकिन आज की बात करें तो अगर प्रदेश में आगामी चुनाव में भाजपा को अगर कोई कड़ी टक्कर दे सकती है तो वो है समाजवादी पार्टी है। 2014 से अब तक की स्थिति में काफी अंतर है क्योंकि इसबार अखिलेश अपने नाम पर वोट मांग रहे हैं। 2017 और 2019 में कांग्रेस और बसपा से गठबंधन का उन्हें फायदा नहीं नुक्सान ही हुआ है, इसलिए वह इस चुनाव में यह गलती दुबारा नहीं दोहराएंगे। मगर सपा की भी राह इतनी आसान नहीं है क्योंकि एक तरफ उसके सामने नरेंद्र मोदी जैसी मज़बूत शख्सियत है तो दूसरी ओर ओवैसी जैसा तगड़ा मुसलमान नेता। ऐसे में मुसलमान वोटबैंक में सेंध लग सकती है।
अखिलेश यादव और मायावती (Wikimedia Commons)
अगर बात करें ब्राह्मण और पिछड़े वोटबैंक की तो यह 2017 और 2019 में भाजपा की जीत का बड़ा कारण था लेकिन वर्तमान में प्रदेश में कई ऐसी जातियां हैं जोकि भाजपा से नाराज़ हैं और यहीं नहीं राजभर समाज का सबसे बड़ा चेहरा और भाजपा सरकार में मंत्री रहे ओमप्रकाश राजभर अब खेमा बदलकर अखिलेश के साथ चले गए हैं। ख़ैर भाजपा ने इन जातियों को लुभाने के लिए कई दांव चले हैं, जैसे की हाल में हुए केंद्रीय मंत्रिमंडल विस्तार में सबसे ज़्यादा सात मंत्री उत्तर प्रदेश से बनाये गए। जिसमें विभिन्न जातियों के नेता शामिल थे। जितिन प्रसाद जैसे मजबूत ब्राह्मण चेहरे को अपने पाले में लाकर भाजपा ने राज्य के ब्राह्मणो को भी लुभाने की कोशिश की है।
राह तो सपा की भी आसान नहीं है क्योंकि एक तरफ वे सत्ता से बाहर है तो दूसरी ओर ओवैसी की पार्टी ने उसकी चिंता बढ़ा दी है। अपने परंपरागत वोटबैंक को बरक़रार रखने के लिए उसने पूर्वांचल में कड़ी पकड़ रखने वाले भाजपा के पूर्व साथी ओमप्रकाश राजभर और कई छोटे दलों को अपनी तरफ कर लिया है यहां तक की मुसलमान वोटरों को लुभाने के लिए उन्होंने जिन्नाह तक की तारीफ कर डाली। अब यह तो जनता ही बताएगी की उनके ये पैंतरे काम आएंगे की नहीं।
पिछले साल नवंबर से किसान दिल्ली में केंद्र सरकार और तीन कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। उनका मानना है की तीनो कानूनों से किसानो का शोषण होगा और इन्हे बर्खास्त कर देना चाहिए। तब से लेकर अब तक एक साल हो गया है और न तो किसानो का प्रदर्शन खत्म हुआ है और न ही सरकार के रुख में कोई बदलाव आया है। लेकिन मतलब की बात यह है की पूर्व में जब भी मायावती और अखिलेश यादव की सरकार में किसानो के प्रदर्शन हुए हैं और दोनों बार ही सत्ताधारी दल को अपनी कुर्सी गवानी पड़ी है। राकेश टिकैत जोकि हरियाणा और पश्चिमी यूपी में अच्छी पकड़ रखते हैं, वह इस किसान आंदोलन का चेहरा हैं और यह देखना दिलचस्प होगा की किसान आंदोलन से चुनाव में किसको नुक्सान और किसको फायदा पहुँचता है।
हाल ही में प्रधानमंत्री ने पूर्वांचल एक्सप्रेसवे का उद्घाटन किया जहां उन्होंने उद्घाटन करते समय कहा की इस एक्सप्रेसवे से यूपी के विकास को और रफ़्तार मिली। अब गौर करने वाली बात तो ये है जहां एक ओर भाजपा ने इस एक्सप्रेसवे को तय समय से पहले तैयार कर अपनी पीठ थपथपा रही है तो वहीं दूसरी ओर सपा भाजपा पर अपने काम का क्रेडिट लेने का आरोप लगा रही है। ख़ैर राजनीति में आरोप प्रत्यारोप कोई नई बात नहीं है लेकिन अगर आंकड़ों को देखें तो मायावती ने यमुना एक्सप्रेसवे बनवाया उनकी सत्ता में वापसी नहीं हुई और यही हश्न अखिलेश यादव के साथ भी हुआ। अब यह देखना दिलचस्प होगा की पूर्वांचल एक्सप्रेसवे भाजपा को सत्ता में वापसी कराता है या नहीं।
हमने अभी तक कई बिंदुओं पर चर्चा की लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति में सबसे अधिक महत्व पूर्वांचल का है। जिस पार्टी में पूर्वांचल जीता है उसने पूरा प्रदेश जीता है लेकिन गौर करने वाली बात यह है की 2007 से पूर्वांचल की जनता ने हमेशा सत्ता बदल दी है तो यह देखना दिलचस्प होगा की कौन सी पार्टी पूर्वांचल में सबसे अधिक प्रभाव डालती है। भाजपा के लिहाज़ से पूर्वांचल और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी(Narendra Modi) और स्वयं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ(Yogi Adityanath) पूर्वांचल से आते हैं तो यह भाजपा के लिए सत्ता में वापसी से ज़्यादा साख की भी लड़ाई है।
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उत्तर प्रदेश में जनता इस बार किसे मौका देगी यह तो उसे ही पता है, लेकिन इस बार उसके पास विकल्प बहुत हैं। एक तरफ उसके पास स्वयं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को एक और मौका देने का विकल्प है या फिर अखिलेश यादव(Akhilesh Yadav) को चुनने का। कांग्रेस की ओर से प्रियंका गाँधी(Priyanka Gandhi) मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनकर चुनाव में उतरें तो बहुत संभावना है की राज्य में कांग्रेस अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकती है। बसपा का इस बार सत्ता में वापसी करना मुश्किल लग रहा है, लेकिन भाजपा की सबसे बड़ी ताकत स्वयं में नरेंद्र मोदी और देश में हिंदुत्व के पोस्टर बॉय योगी आदित्यनाथ हैं और विपक्ष को इनसे पार पाना बहुत मुश्किल होगा।