माँ कालकाजी का पिंडी स्वरुप [Wikimedia Commons] 
Culture

अनेक ऐतिहसिक और आध्यात्मिक घटनाओं का केंद्र: कालकाजी मंदिर

महाभारत (Mahabharat) के समय कृष्ण ने इसी स्थान पर पांडवों द्वारा माँ के लिए हवन करवाया, जिससे प्रसन्न होकर माँ ने विजय होने का आशीर्वाद दिया।

Prashant Singh

दिल्ली (Delhi) में नेहरु प्लेस (Nehru Place) के निकट स्थित कालकाजी मंदिर (Kalkaji Temple) अपने प्रांगण में अनेक ऐतिहासिक और आध्यात्मिक घटनाओं को समेटे हुआ है। यदि हम इतिहास के पन्नों को टटोलें तो 1737 की वो कहानी सामने आएगी, जब दिल्ली को हथियाने की मंशा से मराठा पेशवा बाजीराव प्रथम (Bajiraw) ने दिल्ली पर धावा बोला, तब तत्कालीन मुग़ल शाशक मुहम्मद शाह (Muhammad Shah) ने उन्हें रोकने के लिए तुरंत सादत खां और मीर बख्शी के नेतृत्व में दो टुकड़ियां भेंजी। टुकड़ियों के वहाँ पहुँचने से पहले ही पेशवा वहां से कूच कर गए और तेजी से इस मंदिर को कब्जे में लेते हुए अपना डेरा जमा लिया। शाह की सेना जब तक मंदिर पहुँचीं तब तक पेशवा अपनी फ़ौज के साथ तालकटोरा के जंगल की तरफ निकल चुका था और दिल्ली फ़तह का सपना एक बार फिर अधुरा रह गया।

कालकाजी मंदिर का शिखर [Wikimedia Commons]

1807 में भी जसवंत राव होलकर ने कालकाजी मंदिर को ही केंद्र बनाते हुए यहाँ के प्रांगण में अपना डेरा डाला था। 1857 के संग्राम और 1947 के भारत-पकिस्तान बंटवारे के समय भी कालकाजी मंदिर अनेक हिन्दू क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र बना रहा।

महाभारत कालीन कालकाजी मंदिर के बारे में लोग बताते हैं कि ये मंदिर 3000 वर्ष पुराना है। कहा जाता है कि असुरों से आतंकित हो देवता जब यत्र-तत्र छिपने के लिए मजबूर थे, तब ब्रह्मा जी के सुझाव पर सभी देवताओं ने मिलकर अरावली श्रृंखला (Aravli Range) के सूर्य कूट पर्वत (Surya Kutt Hill) पर इसी स्थान पर भगवती का आह्वाहन किया और माँ ने कौशिकी रूप में इसी जगह पर अवतरण लिया। माँ ने देवताओं की पीड़ा सुनकर अपने भृकुटी से महाकाली को प्रकट किया और महाकाली ने दानवों का दलन प्रारम्भ कर दिया। दानवों में रक्तबीज नामक राक्षस अत्यंत आतातायी था, जिसके रक्त गिरने से सैकणों राक्षस पुनः जीवित हो उठते थे। इसपर माँ अत्यंत क्रोध से भर गयीं और अपने मुख का विस्तार कर रक्तबीज तथा अन्य राक्षसों का रक्त-पान करने लगीं। इस कारण से माँ का यहाँ करुणामयी मुख पिंडी स्वरुप स्थापित है।

समय के साथ यह स्थान घने जंगलों के गोद में कहीं छिप-सा गया । कहा जाता है कि महाभारत (Mahabharat) के समय कृष्ण ने इसी स्थान पर पांडवों द्वारा माँ के लिए हवन करवाया, जिससे प्रसन्न होकर माँ ने विजय होने का आशीर्वाद दिया। अतः यह मंदिर मनोकामना सिद्ध पीठ के नाम से भी जाना जाता है । समय के गर्भ में ये मंदिर एक बार पुनः विलीन सा हो गया जिसका पुनरुद्धार बाबा बालकनाथ (Balaknath) जी ने किया और इससे प्रसन्न होकर माँ ने आशीर्वाद दिया कि आने वाले समय में इस मंदिर में नाथ संप्रदाय के लोग ही महंत तथा पुजारी होंगें।

यदि इस मंदिर के वास्तु की बात करें तो पूर्वमुखी इस मंदिर के गर्भ गृह में 12 मुख्य द्वार हैं, जो दिशाओं, राशियों तथा महीनों का प्रतीक हैं। कहा जाता है कि सभी ग्रह-नक्षत्र कालका माँ के आधीन हैं, इस कारण से बड़े से बड़े ग्रहण और सूतक-पातक में भी इसके द्वार बंद नहीं होते। दिल्ली की महारानी और रक्षक कही जाने वाली माँ कालका के मंदिर में 36 अन्य छोटे द्वार भी हैं जो व्यंजनों के स्वरुप हैं, अर्थात, जगत का हर स्वर, लय-छंद सब माँ से ही प्रारम्भ होता है।

नवरात्रों में ही नहीं बल्कि अन्य दिनों में भी, विशेषतः मंगलवार और शनिवार को यहाँ बहुत ज़्यादा भीड़ होती है। माँ के पिंडी के बगल से ही एक जीने का रास्ता भी है जो महापिंडी तक भूतल में जाता है पर ऐसी मान्यता है कि वहां कोई नहीं जाता। जिसने भी वहां जाने का प्रयास किया वो अंधा अथवा विकलांग होकर लौटा। कहते हैं कि माँ का वहां विराट स्वरुप मौजूद है, जिसका तेज़ कोई सहन नहीं कर पाता।

इस गोलाकार मंदिर की ख़ास बात यह है कि माँ यहाँ बस भाव पर ही साथ चल देती हैं। अतः भक्त माँ को भाव के साथ जो भी सात्विक, राजसिक  या तामसिक पूजा पद्धति के द्वारा मनाते हैं, माँ तत्काल मनोवांछित फल प्रदान करती हैं। अन्य मंदिरों की तरह यहाँ भी लोग मनोकामना पूरी होने पर चना-हलवा की कढ़ाई, प्रसाद, दंडवत, मुंडन इत्यादि करते हैं। 24 घंटों में से यह मंदिर केवल शयन के लिए रात्रि 12 बजे से भोर के 4 बजे तक और दोपहर-शाम के भोग के लिए 2-2 घंटे के लिए बंद होता है। यहाँ बता दें की माँ अन्न से निर्मित भोग केवल मध्याहन में ही लेती हैं जबकि रात्रि में केवल चीनी के बूरे, फल, मेवे आदि का भोग ही माँ ग्रहण करती हैं।

सदियों के रहस्य और चमत्कारों से भरे इस मंदिर के बारे में जितना लिखा या कहा जाए वो कम है।

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