बेहद खास हैं झारखंड का बाहा पर्व, जानिए खासियत

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देशप्राणिक मधु सोरेन

त्यौहार

बेहद खास हैं झारखंड का बाहा पर्व, जानिए खासियत

न्यूज़ग्राम डेस्क

न्यूजग्राम हिंदी: हमारी-आपकी होली भले संपन्न हो गयी हो, लेकिन झारखंड (Jharkhand) के संथाल आदिवासी बहुल गांवों में पानी और फूलों की 'होली' का सिलसिला अगले कई रोज तक जारी रहेगा। संथाली समाज इसे बाहा पर्व (Baha parab) के रूप में मनाता है। कुछ गांवों में बाहा पर्व होली के पहले ही मनाया जा चुका है, तो कुछ गांवों में यह होली के बाद अलग-अलग तिथियों में मनाया जाता है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी आज रामगढ़ जिले के गोला प्रखंड अंतर्गत अपने पैतृक गांव नेमरा में आयोजित हो रहे बाहा पर्व में शिरकत कर रहे हैं। सोरेन भी संथाल समुदाय से आते हैं और इसकी परंपराओं से गहरे तौर पर जुड़े हैं।

हेमंत सोरेन (Hemant Soren) गांव के लोगों के साथ अपने पुश्तैनी घर से करीब आधा किलोमीटर दूर नेमरा पहाड़ की तलहटी पर देवस्थल जहराथान पहुंचे और बाहा पूजा में शामिल हुए। गांव के पाहन (पुजारी) ने आदिवासी परंपरा के मुताबिक अनुष्ठान संपन्न कराया। बताया गया है कि गांव वालों ने हेमंत सोरेन को मुख्य पुरोहित घोषित कर रखा गया है, ऐसे में जब भी जनजातीय पर्व-त्योहार होते है, तो वे अपने पैतृक गांव जरूर पहुंचते हैं।

बाहा का मतलब है फूलों का पर्व। इस दिन संथाल आदिवासी समुदाय के लोग तीर धनुष की पूजा करते हैं। ढोल-नगाड़ों की थाप पर जमकर थिरकते हैं और एक-दूसरे पर पानी डालते हैं। बाहा के दिन पानी डालने को लेकर भी नियम है। जिस रिश्ते में मजाक चलता है, पानी की होली उसी के साथ खेली जा सकती है। यदि किसी भी युवक ने किसी कुंवारी लड़की पर रंग डाला तो समाज की पंचायत लड़की से उसकी शादी करवा देती है। अगर लड़की को शादी का प्रस्ताव मंजूर नहीं हुआ तो समाज रंग डालने के जुर्म में युवक की सारी संपत्ति लड़की के नाम करने की सजा सुना सकता है। यह नियम झारखंड के पश्चिम सिंहभूम से लेकर पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी तक के इलाके में प्रचलित है। इसी डर से कोई संथाल युवक किसी युवती के साथ रंग नहीं खेलता। परंपरा के मुताबिक पुरुष केवल पुरुष के साथ ही होली खेल सकता है।

परंपरा के मुताबिक पुरुष केवल पुरुष के साथ ही होली खेल सकता है (Wikimedia Image)

इस पर्व में महिला-पुरुष के साथ-साथ बच्चे परंपरागत कपड़े पहनकर मांदर की थाप पर खूब झूमते हैं। पूर्वी सिंहभूम जिले में संथालों के बाहा पर्व की परंपरा के बारे में देशप्राणिक मधु सोरेन बताते हैं कि हमारे समाज में प्रकृति की पूजा का रिवाज है। बाहा पर्व में साल के फूल और पत्ते समाज के लोग कान में लगाते हैं। उन्होंने बताया कि इसका अर्थ है कि जिस तरह पत्ते का रंग नहीं बदलता, हमारा समाज भी अपनी परंपरा को अक्षुण्ण रखेगा। बाहा पर्व पर पूजा कराने वाले को नायकी बाबा के रूप में जाना जाता है। पूजा के बाद वह सुखआ, महुआ और साल के फूल बांटते हैं। इस पूजा के साथ संथाल समाज में शादी विवाह का सिलसिला शुरू होता है। संथाल समाज में ही कुछ जगहों पर रंग खेलने के बाद वन्यजीवों के शिकार की परंपरा है। शिकार में जो वन्यजीव मारा जाता है उसे पका कर सामूहिक भोज का आयोजन किया जाता है।

--आईएएनएस/PT

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