बिहार में गोरौल अनुसंधान केंद्र बढ़ाएगा प्रसिद्ध कोठिया केले का उत्पादन  IANS
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बिहार में गोरौल अनुसंधान केंद्र बढ़ाएगा प्रसिद्ध कोठिया केले का उत्पादन

कोठिया केला, ब्लूगो समूह के केले जैसा होता है, जिसे सब्जी के रूप में तथा पका कर दोनों तरीके से उपयोग में लाया जाता है।

न्यूज़ग्राम डेस्क

बिहार में प्रसिद्ध कोठिया केले की मांग इन दिनों बढी है। इस प्रजाति के केले की विशेषता है कि बिना किसी खास देखभाल यानी बिना पानी या कम से कम पानी एवं बिना खाद एवं उर्वरकों के भी 20 से 25 किलोग्राम का घौद (केला का गुच्छा) उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

कोठिया केला प्रजाति बिहार में काफी प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि इसका नाम समस्तीपुर जिले के ताजपुर के पास के एक गाँव कोठिया के नाम पर पड़ा है। इस केले के एक घौद में केला की सख्या 100 से 120 तक हो होती है।

वैज्ञानिकों का मानना है कि इस केले की वैज्ञानिक तरीके से खेती की जाय तो 40 से 45 किलोग्राम का घौद प्राप्त किया जा सकता है, जिसमे केले की संख्या 200 से 250 तक हो सकती है। इसे लेकर गौरौल स्थित केला अनुसंधान के वैज्ञानिकों ने पहल प्रारंभ की है।

अखिल भारतीय फल अनुसंधान परियोजना के तहत भी इस प्रजाति के केले पर प्रयोग किया गया जिसमें प्रत्येक प्रदेश में बहुत ही कम लागत में अच्छी उपज प्राप्त की गई। बताया जाता है कि आज इस प्रजाति के केले की खेती सभी केला उत्पादक राज्यों में हो रही है।

कोठिया केला, ब्लूगो समूह के केले जैसा होता है, जिसे सब्जी के रूप में तथा पका कर दोनों तरीके से उपयोग में लाया जाता है। ब्लूगो समूह के केलों की खासियत होती है कि ये अपने उत्कृष्ट स्वाद, उच्च उत्पादकता, सूखे के प्रतिरोध, केले की विभिन्न प्रमुख बीमारियां जैसे फुजेरियम विल्ट (पनामा विल्ट) और सिगाटोका रोगों के प्रति केला की अन्य प्रजातियों की तुलना में रोगरोधी होती है।

कम उपजाऊ मिट्टी में भी इस केले की खेती की जा सकती है। अखिल भारतीय समन्वित फल अनुसंधान परियोजना के प्रधान अन्वेषक सह डॉ राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा के सह निदेशक एस के सिंह आईएएनएस को बताते हैं कि उत्तर बिहार में सडकों के किनारे लगे केले में अधिकांश केला कोठिया प्रजाति का ही है।

लोगों का कहना है कि कच्चे कोठिया केले से बनी सब्जी या चोखा का प्रयोग करने से पाचन से सम्बंधित अधिकांश बीमारियां ठीक हो जाती हैं। पेट की गंभीर समस्या से लेकर फैटी लीवर के इलाज में भी यह काफी सहायक माना जाता है।

सिंह का मानना है कि कोठिया प्रजाति के केले की खेती में कम खाद एवं उर्वरक के साथ साथ कम पानी की वजह से किसान इसकी खेती के प्रति आकर्षित हो रहे है। प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार यही कारण है कि देश में प्रसिद्ध चिनिया केले की जगह अब कोठिया केला ले रहा है।

केले की खेती करने वाले किसानों की मानें तो हाल के दिनों में कोठिया केले की मांग 80 प्रतिशत तक बढ़ी है। यही कारण है कि अब किसान चिनिया की जगह कोठिया केले की खेती को तरजीह दे रहे हैं।

इस प्रजाति के केले के विभिन्न हिस्सों का भी उपयोग कर विभिन्न उत्पाद बनाए जा रहे हैं जैसे इसके आभासी तने से रेशा निकल कर तरह तरह की रस्सियों, चटाई और बोरियां बनाई जा रही है।

सिंह बताते हैं कि अभी तक इसकी खेती वैज्ञानिक ढंग से नहीं की जा रही है। कोठिया केले की वैज्ञानिक खेती को बढ़ावा देने के लिए इसके उत्तक संवर्धन से पौधे तैयार करने का प्रयास, केला अनुसंधान केंद्र, गोरौल में किया जा रहा है। उन्होंने संभावना जताते हुए कहा कि बहुत जल्द ही इसके उत्तक संवर्धन से तैयार पौधे खेती के लिए किसानों को उपलब्ध कराये जायेंगे, जिससे किसानों को लाभ होगा।
(आईएएनएस/PS)

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