-अभिषेक कुमार
दोपहर ने सांझ की चुनर थाम ली थी। मनमोहन अभी तक ना आया था। जयनाथ ने हताश हो कर टैक्सी रुकवाई और अगले कुछ घंटों में ही "16 - वेबस्टर गार्डन, ईलिंग ब्रॉडवे" पहुंच गया। मनमोहन यहीं रहता था। जयनाथ टैक्सी का किराया चुका कर बिल्डिंग की तरफ बढ़ा। एक बूढ़ी औरत ने बाहर कदम रखा । गले में पीले मोतियों की माला, गर्दन से थोड़े ऊपर की ओर तक के कटे बाल। चश्मा भी पीले रंग का ही था। लैंड लेडी को मनमोहन ने जयनाथ के आने की खबर दे दी थी। जयनाथ ने भी अपना परिचय दे ही दिया। मनमोहन का कमरा ऊपर वाले फ्लोर पर था। लैंड लेडी से चाभी लेकर जयनाथ कमरे में दाखिल हुआ। कमरे का किवाड़ खोलते ही सामने शीशा लगा हुआ था। कमरे के एक कोने में किचन का सामान था, दूसरी तरफ बेड, उसके बगल में सोफा सोफे पर कपड़े बिखरे पड़े थे। बेड पर उस दिन का अखबार खुला पड़ा था। जयनाथ ने सामान रखा और अखबार में छपी तस्वीरें देखने लगा । कुछ घंटे बीत गए। मनमोहन के काम से लौटने का समय हो चला था। सीढ़ियों पर जूतों की चोट सुन कर जयनाथ समझ गया कि उसके बड़े भाई ही होंगे। मनमोहन अपनी पार्ट टाइम स्टडी कर के लौट रहा था।
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असल में इंग्लैंड पहुंचने पर मनमोहन और कैलाश कुछ महीने ही साथ रह पाए थे। उसके बाद बेटे ने अपने पिता को छोड़ कर बर्मिंघम से लंदन की ओर रुख किया। बर्मिंघम में कैलाश का अपना घर था। वहीं उसकी फैक्ट्री भी थी। फैक्ट्री में करीबन सौ लोग काम किया करते था। पच्चास दोपहर की शिफ्ट में, बाकि पच्चास रात की शिफ्ट में इसी तरह काम के सिलसिले में एक रोज़ फैक्ट्री में आईवी का आना हुआ। कैलाश ने उसे अपनी पर्सनल असिस्टेंट का दर्जा दिया। आईवी के शरीर की गठन देखने में मॉडर्न और सुडौल थी। समय के साथ कैलाश और आईवी के बीच आकर्षण ने जन्म लिया । आकर्षण नज़दीकियों को बढ़ाया, नज़दीकयों ने दोनों को एक ही छत के एक ही कमरे में लाकर खड़ा कर दिया। दोनों साथ रहने लगे थे। आईवी का रहना मनमोहन को बर्दाश्त ना था। यही कारण हुआ बाप बेटे ने अपने रास्ते अलग कर लिए।
लंदन पहुंच कर मनमोहन ने सबसे पहले इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने की सोची। रोटी, कपड़ा और मकान के लिए पैसे भी लगेंगे। इसी नाते पार्ट टाइम काम भी पकड़ लिया। हफ्ते के तीन दिन दोपहर में काम किया करता शाम को पढ़ाई। मनमोहन की डिग्री अब पूरी ही होने वाली थी कि जयनाथ भी यहाँ आ गया।
दोनों भाइयों की कई सालों बाद मुलाक़ात हुई। मगर बात करने को किसी के पास कुछ ना था। कुछ देर कमरे ने घनघोर चुप्पी सही । फिर मनमोहन ने कहा- “कल जा कर वाय. एम सीए के हॉस्टल्स देख ना। वहां रह कर कोई काम ढूढ़ने की कोशिश करना। "
परजयनाथ यहाँ अपने भाई के भरोसे पर था। उसी भरोसे पर जिसकी बाजुओं को काट कर अभी कुछ क्षण पहले ही मनमोहन ने गहरे समंदर में फेंक दिया। बीते कुछ पलों में ही जयनाथ समझ चुका था कि वो यहां पर बिलकुल अकेला है। बिलकुल अकेला...!
सुबह होते ही, मनमोहन काम पर निकल गया। जयनाथ उसके कुछ घंटे बाद घर से बाहर निकला । मनमोहन ने उसे हॉस्टल के लिए रास्ता बता ही दिया था। हॉस्टल देखने के बाद, जयनाथ काम की तलाश में निकल लिया। विदेश में नया था। लोगों से खुल के बात कर ना सका और पहले दिन क्या ही काम मिल जाता। घर लौट आया। अगले दिन मनमोहन की छुट्टी थी। दोनों एक साथ हॉस्टल की ओर निकले। निकलते हुए जयनाथ ने अपना सामान बाँध लिया था। हॉस्टल में कमरा उसी दिन मिल गया। कमरे में दो बिस्तर लगे हुए थे। दूसरे बेड पर तीस साल का गोरा चिट्टा अंग्रेज़ आराम कर रहा था। वही जयनाथ का रूममेट था। हॉस्टल से निकलते हुए मनमोहन ने अपने छोटे भाई को अपनी श बाइक की चाभी दे दी "बस का किराया बच जायेगा, रख लो।"
जीवन की भूल-भुलइया में आप कब कहाँ मिलेंगे, इसका अनुमान लगा पाना निहायत कठिन है। कुछ इसी हाल से जयनाथ भी गुज़र रहा था। हॉस्टल में रहते हुए काम की खोज में धुप-छाँव करती हुई उसकी ज़िन्दगी उससे आंखमिचोली खेल रही थी। माँ के अनकहे सवालों के जवाब ढूढ़ने की कोशिश में जयनाथ खुद • की खोज में निकल पड़ा था। उसकी इसी बेसुध खोज ने आखिरकार उसे एक आइसक्रीम फैक्ट्री में नौकरी दिलवा ही दी। उसका काम था छाट कर बाहर कर देनी वाली आइस क्रीम्स को अलग जगह पर जाकर रखना । इसी बीच कभी छोटा टुकड़ा इस आइस क्रीम का तो बड़ा टुकड़ा उस आइस क्रीम का खा ही लिया करता था। अपनी पहली नौकरी से उसे हफ्ते के आठ पाउंड मिल जाया करते थे। इसमें से कुछ पैसे जमा कर लेता। कुछ किराए और खाने पीने में खर्च हो जाते। छ-सात महीने वहां काम करने के बाद उसे पता लगा कि उसके बड़े भाई इंजीनियरिंग की डिग्री मिलने के बाद एक बार फिर से कैलाश की फैक्ट्री में सीनियर इंजीनियर के औदे पर काम करने लगे हैं। मनमोहन एक बार फिर से बर्मिंघम लौट गया था। बड़े भाई से प्रेरित हो कर जयनाथ भी साइंस की डिग्री के लिए पार्ट टाइम स्टडी करने लगा।
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जयनाथ एक ही चकरी में घूम रहा था। उसकी सुबह से रात की दिनचर्या पढ़ाई करने और पढ़ाई करने के लिए पैसे कमाने में बीत जाया करती थी। जयनाथ ने साल में एक दफा अपनी माँ को चिट्ठी भी लिखी। विदेश से सिर्फ कागजों पर लिखे बेटों के शब्द आते थे, विदेश से इस माँ का कोई बेटा लौट कर नहीं आया था।
बुलंदशहर की कच्ची सड़कों से निकल कर लन्दन की चिकनी और साफ़ सड़कों पर जयनाथ सम्भलने लगा था। उसका खुद पर यकीन बढ़ गया था। जयनाथ अब अकेला नहीं था, अपने साथ खड़ा था। अपने पिता से मिलने को मानसिक रूप से तैयार था। उसने बाहर के एक फ़ोन बूथ से अपने पिता को कॉल लगाया, घंटी बज रही थी... किसी ने फ़ोन नहीं उठाया । खुद तटस्थ
उसने फिर से प्रयास किया, घंटी पुनः बजने लगी- "यस ( yes)" - उधर से आवाज़ आयी ।
जयनाथ ने एक हिचकी में कहा "एम आयी स्पीकिंग टू कैलाश नाथ (क्या मैं कैलाश नाथ से बात
कर रहा हूँ?"
"स्पीकिंग, हू इज़ दिस? (बोल रहा हूँ, आप कौन?) "
कुछ देर की चुप्पी... फिर... गहरी गर्म सांसें आवाज़ की शक्ल में ढल गईं। "जयनाथ बोल रहा हूँ, मैं आपसे मिलना चाहता हूँ, बट यू विल हैव टू कम हियर (आपको इधर होगा )"
कैलाश को जयनाथ के लंदन आने की खबर थी। जयनाथ के लंदन पहुंचने के कुछ महीने बाद ही कैलाश के पास एक सरकारी लेटर आया। लेटर में कैलाश को इत्तिला किया गया कि जयनाथ मिसरा ने उसे अपने गारंटर के रूप में रखा है। कैलाश ने इस पर आपत्ति जता दी। जिसके बाद जयनाथ के सामने एक बहुत बड़ी समस्या आ खड़ी हुई। अगर वो जल्द ही किसी दुसरे गारंटर का प्रबंध नहीं करता तो उसे भारत लौटना पड़ सकता था। तभी उसने अपने एक दूर के रिश्तेदार को पत्र भेज कर अपनी समस्या बताई। उसके यह रिश्तेदार कानपुर में रहते थे। कॉलेज के दिनों में जयनाथ वहां अक्सर जाया करता था। कहने को वो कैलाश की दूर की बहन थी। मगर जयनाथ को अपने बेटे सा प्यार करती, शायद इसलिए क्योंकि उनकी अपनी कोई संतान न थी । कानपूर में रह रहे उस दाम्पत्य को जैसे ही जयनाथ का पत्र मिला उन्होंने उसकी मजबूरी को समझा और हामी भर दी। इस घटना ने जयनाथ और कैलाश के बीच की नाराज़गी को एक नई वजह दे दी थी।
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फ़ोन पर तय हुई जगह पर जयनाथ अपने पिता की राह देख रहा था। आज का दिन जयनाथ की भावनाओं पर भारी था। उसने अपने पिता को मात्र तस्वीरों में देखा था। तस्वीर ही उसकी हक़ीक़त थी। तस्वीर ही उसकी कल्पना । तस्वीर की शक्ल का ही एक इंसान, लम्बे भूरे रंग का कोट पहने उसकी ओर चला आ रहा था। जयनाथ के पैर स्थिर थे। कांपती आँखों ने पहली दफा कैलाश को देखा था। एक बेटे ने पहली बार अपने पिता के साए को महसूस किया था। कैलाश उसके ठीक सामने खड़ा था। कैलाश ने गौर किया कि उसका बेटा उससे कुछ इंच लम्बा हो चुका है। दोनों के कंधे एक ही रेखा पर नहीं थे। बाप-बेटे के इस मिलाप में लाज़िमी सी एक कसावट थी। दोनों ने हाथ मिलाए मगर किसी अनजान की तरह। ना बाप ने बेटे को गले लगाया, ना बेटे के दिल ने कैलाश नाथ को बाप पुकारने की मंज़ूरी दी। दोनों वहां से बाहर निकले। वहां से 3 मिनट के रास्ते पर वीरास्वामी रेस्टोरेंट था।
कैलाश को विदेश आए 22 साल हो चुके थे। कपड़े अंग्रेजी थे, मगर रहने, खाने पीने का ढंग आज भी भारतीय पट्टी का था । टेबल पर खाने की प्लेट सज गयी। तरह तरह के व्यंजन आये। दोनों ने भर पेट खाना खाया। जयनाथ ने विदेश में पहली बार इतना सारा खाना एक साथ देखा था। खाने के बाद रसगुल्लों की प्लेट भी आयी। कैलाश ने ही सारा खर्चा दिया था। पैसा रखने के बाद दोनों उठे, होटल से बाहर निकले। कैलाश ने अपने बेटे से एक बार फिर हाथ मिलाया और स्टेशन की तरफ मुड़ गया । जयनाथ वहीं खड़ा अपने पिता को जाता देख रहा था। पिता का यह रौब देख कर जयनाथ का दिल थोड़ा पिघल गया। उसे अपने पिता की सफलता पर अंदर ही अंदर गर्व हो रहा था...! पर यह क्या? जयनाथ जिस मकसद से अपने पिता से मिलना चाहता था, वो मक़सद अभी भी उसके हलक में अँधेरा बन कर बैठा था। बाप-बेटे की इस पहली मुलाक़ात में मुश्किल से तीन से चार शब्दों का आना जाना हुआ था। जयनाथ अपने पिता के सामने सुशीला की आवाज़ बन कर जाना चाहता था। फिर जयनाथ यह क्या सोचने लगा था। पिता की ऊँची शान ने कहीं जयनाथ के मक़सद को बौना तो नहीं कर दिया था। यूँ ही सोचते विचारते जयनाथ अपने कमरे में लौट आया। महीनों बाद बुलंदशहर से एक चिट्ठी आई। चिट्ठी में सुशीला की मौत की खबर थी। मौत का कारण स्तन कैंसर रहा।