भारत की न्याय व्यवस्था (Indian Judicial System) पर अक्सर सवाल उठाते रहे हैं [Pixabay][साकेतिक चित्र] 
कानून और न्याय

चार दशक बाद आया फैसला, जब आरोपी हो चुका 90 साल का!

इसी न्याय की देरी पर एक और मामला देखने को मिल रहा है जिसमें 1984 में शुरू हुए मामले में 2025 में फाइनल डिसीजन देखने को मिला। इसी केस में कोर्ट ने एक बड़ा दिलचस्प फैसला लिया और फाइनल जजमेंट दिया। तो आइए जानतें है कि यह पूरा मामला है क्या ?

न्यूज़ग्राम डेस्क

भारत की न्याय व्यवस्था (Indian Judicial System) पर अक्सर सवाल उठाते रहे हैं न्याय (Justice) में देरी न्याय व्यवस्था (Judicial System) की एक सबसे बड़ी कमजोरी रही है। कई केस ऐसे देखे गए हैं जिसमें जिस व्यक्ति पर मुकदमा दायर किया गया था वह व्यक्ति जिंदा नहीं है और उसके बाद उसे न्याय मिल रहा है या फिर उसका गुनाह सामने आया है। इसी न्याय की देरी पर एक और मामला देखने को मिल रहा है जिसमें 1984 में शुरू हुए मामले में 2025 में फाइनल डिसीजन देखने को मिला। इसी केस में कोर्ट ने एक बड़ा दिलचस्प फैसला लिया और फाइनल जजमेंट दिया। तो आइए जानतें है कि यह पूरा मामला है क्या ?

1984 में हुआ था केस दर्ज़

तो इस केस की शुरुआत होती है 1984 में। सुरेंद्र कुमार (Surendra Kumar) नाम के एक सीनियर सरकारी अधिकारी, जो स्टेट ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (STC) में चीफ मार्केटिंग मैनेजर के पद पर थे, उन पर 15,000 रुपये की रिश्वत मांगने का आरोप लगा। आरोप था कि उन्होंने एक मछली सप्लायर को सौदा दिलाने के लिए पैसे माँगे। सीबीआई (CBI) ने जांच की, छापेमारी की, और कुछ ही देर में गिरफ्तारी हो गई।

केस की जंग 40 साल तक चली। [Pixabay] [साकेतिक चित्र]

गिरफ्तारी के अगले दिन ही उन्हें जमानत मिल गई, लेकिन केस की जंग 40 साल तक चली। लगभग 19 साल बाद, ट्रायल कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया और सुरेंद्र कुमार (Surendra Kumar) को दोषी पाया गया। ट्रायल कोर्ट के फैसले के अनुसार उन्हें तीन साल की कैद और 15,000 रुपये जुर्माना के रूप में देनी पड़ी। सुरेन्द्र कुमार ने इस फैसले के खिलाफ उसी साल हाईकोर्ट (High Court) में अपील दायर की और वे उम्मीद कर रहे थे कि अपील कोर्ट जल्द सुनवाई करेगा, लेकिन फिर, अपील भी 22 साल तक लटकी रही! जस्टिस जसमीत सिंह ने 8 जुलाई को फैसला सुनाते हुए कहा :

यह मामला संविधान में दिए गए ‘तुरंत न्याय’ के अधिकार के खिलाफ है। 40 साल तक एक व्यक्ति के सिर पर फैसले की तलवार लटकी रहे, यह अपने आप में एक बड़ी सजा है।

तारीखें मिलती रही पर न्याय नहीं

हाई कोर्ट (High Court) में या मामला लगभग 40 सालों तक लटका रहा। जस्टिस जसमीत सिंह ने कहा कि यह "डैमोकल्स की तलवार" ("The Sword of Damocles") के समान था, एक लंबित अनिश्चितता जिसने पूरे जीवन को प्रभावित किया। ये देरी, संविधान के अनुच्छेद 21 के खिलाफ थी। यही देरी ही अब इनके राहत का आधार बन गई। हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि 40 साल तक यह मामला हाई कोर्ट (High Court) में रहा और तारीख में पढ़ती रही जिसमें सुरेंद्र कुमार को हाजिर होना पड़ा और यही उनकी सबसे बड़ी सजा थी।

दिल्ली हाईकोर्ट (High Court) ने इस मामले में यह ध्यान रखा कि सुरेंद्र कुमार ने ट्रायल या अपील प्रक्रिया में देरी नहीं की थी [Pixabay]

क्या था 1984 का पूरा मामला?

1984 में दर्ज FIR के मुताबिक, STC ने 140 टन ड्राई फिश सप्लाई के लिए कॉन्ट्रैक्ट निकाला था। मुंबई की एक कंपनी के पार्टनर अब्दुल करीम हमीद ने बोली लगाई। उसका आरोप था कि सुरेंद्र कुमार ने ऑर्डर दिलाने के एवज में 15,000 रुपये की रिश्वत मांगी है। उन्होंने पहले 7,500 रुपये होटल में लाने को कहा, हमीद ने CBI को शिकायत दी। छापेमारी में सुरेंद्र कुमार रिश्वत लेते पकड़े गए। इसी रिश्वत के चलते सुरेंद्र कुमार जी को कोर्ट के चक्कर काटने पड़े। आज वह 90 वर्ष के हो गए हैं, और अपने कार्य करने तक में भी असमर्थ है, अब जा कर उन्हें हाई कोर्ट से जमानत मिली है।

सुरेंद्र कुमार जी काफी बूढ़े हो चुके हैं उनकी उम्र भी 90 साल की हो चुकी है [Pixabay] [साकेतिक चित्र]

कोर्ट ने सुनाया दिलचस्प फैसला

दिल्ली हाईकोर्ट (High Court) ने इस मामले में यह ध्यान रखा कि सुरेंद्र कुमार ने ट्रायल या अपील प्रक्रिया में देरी नहीं की थी, साथ ही CBI ने भी माना कि उम्र, स्वास्थ्य और देरी जैसे कारक सजा कम करने के हक़दार बनाते हैं, और यही ही वजह रही कि कोर्ट ने न्याय की भावना को ध्यान में रखकर सजा माफ की। कोर्ट ने केवल एक दिन की सजा सुनाया और बाकी सभी सजा माफ कर दी गई। सुरेंद्र कुमार जी काफी बूढ़े हो चुके हैं उनकी उम्र भी 90 साल की हो चुकी है और वह अपने किसी भी कार्य को करने में असमर्थ है इसके साथ ही बीमारी और कई स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रहे हैं इन सभी परिस्थितियों को देखते हुए हाईकोर्ट (High Court) ने उनकी सभी सजाओं को माफ कर दिया।

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ऐसे मामले अक्सर संसाधन की कमी, गवाहों की अनुपस्थिति या कानूनी प्रक्रिया की जटिलता की वजह से लटके रहते हैं। एक दीर्घ प्रक्रिया, कोर्ट में दस्तावेज, बहस, गवाहों की गवाहियाँ, सब मिलकर साल दर साल खिंच जाती हैं। इन मामलों से सीखा जा सकता है कि पॉवर जिसे देता है, न्याय भी उसे देना चाहिए समय रहते। इस न्याय ने सीख दी है कि “जब सज़ा देना ही न्याय नहीं देता, तब उसे माफ करना भी न्याय ही है।” [Rh/SP]

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