जब अनिरुद्ध आचार्य 15 साल में शादी को “अच्छा” बताते हैं, तो वो बाल विवाह जैसी गैर-कानूनी और ख़तरनाक प्रथा का समर्थन करते हैं। (Sora AI) 
सामाजिक मुद्दे

जब ‘परंपरा’ के नाम पर हो औरतों पर नियंत्रण की कोशिश: अनिरुद्ध आचार्य महाराज का बयान क्यों ग़लत है

अनिरुद्ध आचार्य महाराज (Aniruddh Acharya Maharaj) का हाल ही मै दिया गया बयान न केवल बाल विवाह को सही ठहराता है, बल्कि महिलाओं की यौन स्वतंत्रता पर सवाल उठाकर उन्हें एकतरफ़ा दोषी ठहराता है। यह सोच न समाज के लिए स्वस्थ है, न रिश्तों के लिए, और न ही बराबरी की दिशा में आगे बढ़ने के लिए।

न्यूज़ग्राम डेस्क

हाल ही में खुद को संत कहने वाले अनिरुद्ध आचार्य महाराज (Aniruddh Acharya Maharaj) ने एक बयान देकर विवाद खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा कि पहले लड़कियों की शादी 15 साल की उम्र में हो जाती थी, जो “अच्छा” था, लेकिन अब 25 साल में होती है तो “चार जगह मुंह मार चुकी होती हैं।” यह बात सिर्फ़ पिछड़ी सोच ही नहीं, बल्कि कई स्तर पर खतरनाक भी है।

ये कोई अकेला मामला नहीं है। इससे पहले प्रेमानंद महाराज (Premanand ji Maharaj) ने भी कहा था कि “100 लड़कियों में से सिर्फ़ 2-4 ही एक पुरुष को समर्पित रह पाती हैं।” उन्होंने लड़का-लड़की दोनों के बारे में ये बात कही, लेकिन भाषा और जोर साफ़ दिखा रहा था कि निशाना ज़्यादा लड़कियों पर था।

ऐसे बयानों से पता चलता है कि किस तरह परंपरा और नैतिकता का नाम लेकर महिलाओं की पसंद और आज़ादी पर रोक लगाने की कोशिश की जाती है।

बाल विवाह को बढ़ावा

जब अनिरुद्ध आचार्य 15 साल में शादी को “अच्छा” बताते हैं, तो वो बाल विवाह जैसी गैर-कानूनी और ख़तरनाक प्रथा का समर्थन करते हैं। भारत में बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के तहत लड़कियों की शादी की कानूनी उम्र 18 साल और लड़कों की 21 साल है।

बाल विवाह सिर्फ़ गैर-कानूनी नहीं, बल्कि महिलाओं के स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन के अधिकार पर सीधा हमला है। यूनिसेफ़ (UNICEF) और NFHS के आंकड़े बताते हैं कि जल्दी शादी से मातृ मृत्यु दर बढ़ती है, पढ़ाई रुक जाती है और घरेलू हिंसा का ख़तरा भी बढ़ जाता है।

अगर सच में रिश्तों को मजबूत करना है, तो हमें बराबरी, सम्मान और समझ पर बात करनी चाहिए—न कि औरतों के शरीर को ‘इज़्ज़त’ और ‘पवित्रता’ से तौलना चाहिए। (Sora AI)

“मुंह मार चुकी” जैसी भाषा की सोच

“मुंह मार चुकी” जैसी अभद्र औरत-विरोधी भाषा लड़कियों की यौन स्वतंत्रता पर तंज है। असलियत ये है कि रिश्ते और अनुभव दोनों ही जेंडर में होती हैं, लेकिन आरोप और शर्मिंदगी सिर्फ़ महिलाओं पर थोपी जाती है।

जब लड़के के पिछले रिश्ते होते हैं तो उसे “जवानी की गलती” कहकर टाल दिया जाता है, लेकिन लड़की के अनुभव को उसकी “इज़्ज़त खोना” मान लिया जाता है। ये सोच महिलाओं को एक ‘संपत्ति’ की तरह देखती है, जिसका मूल्य सिर्फ़ उसकी “पवित्रता” से जोड़ा जाता है।

लिव-इन रिलेशनशिप पर दोहरा मापदंड

अनिरुद्ध आचार्य ने लिव-इन रिलेशनशिप को भी गलत बताया, लेकिन उन्होंने ये नहीं बताया कि पहले के समय की “बिना जान-पहचान” वाली शादियां कितनी बार असंतोष, मजबूरी और हिंसा में बदल जाती थीं।

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पहले, लड़कियों की शादी ऐसे पुरुष से कर दी जाती थी जिसे उन्होंने कभी देखा तक नहीं था। शादी के बाद अगर पति हिंसक हो, शराबी हो, या रिश्ता अच्छा न चले, तो भी तलाक लेना सामाजिक रूप से असंभव था।

आज के समय में डेटिंग या लिव-इन रिश्तों का मकसद कई बार सिर्फ़ ये देखना होता है कि क्या दोनों एक-दूसरे के साथ जिंदगी बिताने के लिए सही हैं या नहीं। यह ज़रूरी नहीं कि हर लिव-इन रिश्ता सही हो, लेकिन इसे सिर्फ़ “अशुद्ध” कहकर खारिज करना, हकीकत से आंख मूंद लेना है।

रिश्ते टूटने का कारण सिर्फ़ किसी का यौन इतिहास नहीं होता। असल वजह होती है:

  •  बातचीत और समझ की कमी

  •  आर्थिक दबाव

  •  आपसी सम्मान की कमी

  •  ज़िम्मेदारियों का असमान बंटवारा

सिर्फ़ महिलाओं के पिछले रिश्तों को दोष देना आसान है, लेकिन यह पुरुषों और समाज की जिम्मेदारी से ध्यान हटाने का तरीका है।

ये सोच महिलाओं को एक ‘संपत्ति’ की तरह देखती है, जिसका मूल्य सिर्फ़ उसकी “पवित्रता” से जोड़ा जाता है। (Sora AI)

निष्कर्ष

अनिरुद्ध आचार्य (Aniruddh Acharya) जैसे बयान सिर्फ़ “राय” नहीं होते, ये समाज की सोच को प्रभावित करते हैं, खासकर गांवों और परंपरागत इलाकों में। बाल विवाह का समर्थन, लिव-इन को बदनाम करना और महिलाओं की यौन आज़ादी पर हमला, हमें बराबरी की दिशा से पीछे धकेलता है।

अगर सच में रिश्तों को मजबूत करना है, तो हमें बराबरी, सम्मान और समझ पर बात करनी चाहिए—न कि औरतों के शरीर को ‘इज़्ज़त’ और ‘पवित्रता’ से तौलना चाहिए। (RH/BA)

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