Surdas : भक्ति मार्ग के प्रमुख कवियों में से जिनका नाम सर्वप्रथम याद आता है, वो हैं सूरदास जी। इनका जन्म दिल्ली के करीब सीही नाम की जगह पर हुआ। उनके जन्म के साल के बारे में दो अलग-अलग दावे किए जाते हैं। कुछ के अनुसार उनका जन्म साल 1478 में हुआ था तो वही कुछ लोग कहते हैं कि इनका जन्म 1483 में हुआ। सूरदास जन्म से ही नेत्रहीन थे। इनकी दोनों आंखें नहीं थी लेकिन इसके बावजूद भी वो सब कुछ देख लिया करते थे। कई ग्रंथों में उनके बारे में लिखा मिलता है कि नित्यानन्द चरण दास पेंगुइन से प्रकाशित अपनी किताब ”कृपा सिन्धु: भारतीय आध्यात्म के 21 प्रतीक” में भी इस बात का जिक्र करते हैं. वह लिखते हैं कि चूंकि सूरदास बचपन से ही नेत्रहीन थे, इसलिए उनका सही से देखभाल नहीं हो पाया। उनके माता-पिता भी बहुत गरीब थे। एक बार सूरदास की दयनीय हालत देखकर एक दुकानदार ने उन्हें दो सोने के सिक्के दे दिए। सूरदास अपने घर लौटे तो माता-पिता को सिक्के सौंप दिये। परिवार ने तय किया कि उन सोने के सिक्कों से अगले दिन घर का सामान खरीदेंगे।
सिक्कों को कपड़े की एक थैली में रखकर सो गए। रात में एक चूहा थैली लेकर भाग गया। सुबह जब सूरदास के माता-पिता को थैली नहीं मिली तो वह अपने भाग्य को कोसने लगे। नित्यानन्द चरण दास लिखते हैं कि इस पर सूरदास का दिल पसीज गया। उन्होंने अपने माता-पिता के सामने शर्त रखी कि अगर वह बता दें कि सिक्के कहां हैं, तो उन्हें घर छोड़ने की अनुमति देनी होगी। उनके माता-पिता तैयार हो गए। इसके बाद सूरदास माता-पिता को ठीक उसी जगह ले गए, जहां चूहे ने सिक्के वाला थैला छुपा रखा था। यह देख कर उनके माता-पिता भी दंग रह गए।
घर त्यागने के बाद सूरदास ने करीब 8 मूल दूर एक दूसरे गांव में शरण ली। एक पेड़ के नीचे बैठे ही थे कि एक जमींदार अपनी खोयी हुई गायों को तलाशता हुआ आया। उसने सूरदास से गायों के बारे में पूछा। सूरदास ने जवाब दिया हुआ कि वह गायों को ढूंढने में मदद करेंगे, लेकिन बदले में कुछ चाहिए। उन्होंने जमींदार को बताया कि 4 मील दूर एक अस्तल में दोनों गायें बंधी हैं।
इसके बाद जमींदार को ठीक उसी जगह गाय मिली। बाद में उसने उसी पेड़ के नीचे सूरदास के लिए झोपड़ी बनवा दी और उनके रहने-खाने की व्यवस्था की। सूरदास ने वहां करीब 12 साल बिताया। इसके बाद वृंदावन की तरफ चल पड़े। यहीं उनकी मुलाकात वल्लभाचार्य से हुई और दीक्षा ली।
वल्लभाचार्य के बेटे विट्ठलनाथ के पास भगवान कृष्ण की एक सुंदर प्रतिमा थी। उसका हर दिन श्रृंगार होता था। जब पर्दे हटते तभी लोगों को पता लगता कि उस दिन भगवान का कैसा श्रृंगार है, पर सूरदास को पहले से ही सब पता लग जाता, और उसी श्रृंगार पर भजन गाते। विट्ठलनाथ के बेटों ने सूरदास की परीक्षा लेने का फैसला किया। एक दिन भगवान कृष्ण के गले और कमर में कुछ मोतियों के अलावा कोई वस्तु नहीं पहनाई गई। श्रृंगार के दौरान पर्दे बंद थे और सूरदास बाहर बैठे थे। जब पर्दा खुला तो विट्ठलनाथ के बेटों ने कहा- सूरदास जी, कृपया प्रभु के श्रृंगार पर कुछ कीर्तन गाएं।
देखो री हरि नंगम नंगा
जलसुत भूषण अंग विराजत
वसन हीन छवि उठत तरंगा
अंग अंग प्रति अमित माधुरी
निरखत लज्जित कोटि अनंगा
सूरदास का भजन सुनकर वल्लभाचार्य के बेटे दंग रह गए।