राष्ट्रकवि की पंक्ति 'अवसर तेरे लिए खड़ा है' ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा बदल दी। IANS
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'अवसर तेरे लिए खड़ा है...' राष्ट्रकवि की एक पंक्ति ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की बदली दिशा

'अवसर तेरे लिए खड़ा है, फिर भी तू चुपचाप पड़ा है...' सन 1912 के आसपास, जब यह पंक्ति एक दुबले-पतले और शांत स्वभाव के कवि की लेखनी से निकली, भारत की राष्ट्रीय चेतना का संकल्प-मंत्र बन जाएगी।

Author : IANS

ब्रजभाषा के वर्चस्व वाले काव्य-मंच पर एक नए, सरल और राष्ट्रीयता से भरे स्वर का उदय हो रहा था। यह स्वर था मैथिलीशरण गुप्त का, जिन्हें बाद में महात्मा गांधी ने स्वयं 'राष्ट्रकवि' का महापद प्रदान किया।

आज हम उस साहित्यिक महापुरुष की गाथा पर दृष्टि डालते हैं, जिनका महाप्रयाण 12 दिसंबर 1964 को हुआ, लेकिन जिनकी विरासत आज भी आधुनिक भारतीय चेतना का निर्माण कर रही है।

मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त 1886 को उत्तर प्रदेश के झांसी जिले के चिरगांव में हुआ था। उनके घर का माहौल धार्मिक और साहित्यिक था। पिता रामचरण गुप्त परम वैष्णव थे और इन्हीं वैष्णव संस्कारों ने गुप्त के काव्य में मर्यादा, भक्ति और नैतिकता का बीजारोपण किया।

कम ही लोगों को पता है कि गुप्त को औपचारिक विद्यालयी शिक्षा नहीं मिली। उन्होंने घर पर ही संस्कृत, अंग्रेजी और यहां तक कि बंगला साहित्य (Bangla Literature) का ज्ञान प्राप्त किया। यह ज्ञान उन्हें क्लासिकल भारतीय परंपरा और समकालीन बंगाली नवजागरण की व्यापकता से जोड़ने वाला साबित हुआ।

लेकिन जिस शख्सियत ने उनके कवि-जीवन को सबसे निर्णायक मोड़ दिया, वे थे आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी। द्विवेदी ने 'सरस्वती' पत्रिका के संपादक के रूप में एक महान साहित्यिक क्रांति का नेतृत्व किया था। द्विवेदी का प्रोत्साहन केवल नैतिक समर्थन नहीं था, यह एक मार्गदर्शक हस्तक्षेप था जिसने गुप्त को ब्रजभाषा की मोह-माया से मुक्त कर, खड़ी बोली में राष्ट्रीय चेतना को सफलतापूर्वक व्यक्त करने वाला कवि बना दिया। यह गुरु-शिष्य परंपरा ही द्विवेदी युग की साहित्यिक क्रांति की नींव थी।

मैथिलीशरण गुप्त ने 1910 में अपने पहले काव्य संग्रह 'रंग में भंग' और फिर 'जयद्रथ वध' से अपनी यात्रा शुरू की। उन्होंने पौराणिक आख्यानों को चुना, पर उनका उद्देश्य इतिहास का गान करना नहीं, बल्कि राष्ट्रीय अस्मिता को जगाना था।

अगर गुप्त ने खड़ी बोली को केवल एक साहित्यिक भाषा बनाया होता, तो वह युग-प्रवर्तक होते, लेकिन जो चीज उन्हें 'राष्ट्रकवि' बनाती है, वह है उनकी कालजयी कृति 'भारत-भारती'।

1912-1913 में प्रकाशित इस कृति ने पराधीनता के काल में भारतीयों के आत्मविश्वास को पुनर्जीवित करने का कार्य किया। भारत-भारती सिर्फ एक कविता संग्रह नहीं थी, यह भारतीय संस्कृति का एक सांस्कृतिक घोषणापत्र थी।

इसमें भारत भूमि के गौरवशाली इतिहास, संस्कृति और राष्ट्रीय स्वाभिमान को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया था। इसका केंद्रीय संदेश स्पष्ट था कि ऐतिहासिक गौरव को याद करो, वर्तमान की दुर्दशा से जागो और अपने कर्तव्य (कर्म क्षेत्र) को पहचानो (जैसे, “अवसर तेरे लिए खड़ा है, फिर भी तू चुपचाप पड़ा है”)।

इस रचना की आग इतनी दूर तक फैली कि इसकी गूंज महात्मा गांधी के कानों तक पहुंची। गांधी जी मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय चेतना से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने ही इस गृहस्थ कवि को 'राष्ट्रकवि' की पदवी दी। यह उपाधि गुप्त की काव्य प्रतिभा के लिए कम, बल्कि उनकी रचनाओं की वैचारिक शक्ति के लिए अधिक थी। गांधी जी ने समझा कि यह एक ऐसा साहित्यिक हथियार है, जो अहिंसक आंदोलन के लिए आवश्यक सांस्कृतिक चेतना और नैतिक बल प्रदान कर सकता है।

जाहिर है, ब्रिटिश सरकार के लिए यह साहित्य एक वैचारिक खतरा था। 'भारत-भारती' ने हजारों लोगों को सत्याग्रह के लिए प्रेरणा दी और भारतीयों की मान-मर्यादा को पुनर्स्थापित किया।

मैथिलीशरण गुप्त के साहित्यिक शिखर को उनके दो महान कार्यों से समझा जा सकता है। महाकाव्य 'साकेत' (1931) और खंडकाव्य 'यशोधरा' (1932)। इन कृतियों में, उन्होंने पारंपरिक कथाओं को आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण दिया और दो उपेक्षित नारी पात्रों को केंद्र में लाकर उन्हें महाकाव्यिक गौरव प्रदान किया।

साकेत (अयोध्या का पर्याय) की रचना का मुख्य उद्देश्य रामकथा में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के प्रति उपेक्षा भाव को दूर करना था। जब राम वन को गए, तो लक्ष्मण भी साथ गए, लेकिन उर्मिला का विरह-त्याग प्रायः कथाओं में अनकहा रह गया था। गुप्त ने उसे त्याग की देवी के रूप में प्रतिष्ठित कर उसकी उपेक्षा दूर की। उन्होंने उर्मिला को त्याग, पतिपरायणता और विनम्रता के गुणों से मंडित करके करुणा और सहनशीलता का प्रतीक बनाया।

इसी कड़ी में, यशोधरा (1932) खंडकाव्य गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा के त्याग और पीड़ा पर केंद्रित है, जिसे बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण (गृह त्याग) के बाद समाज में उपेक्षा का सामना करना पड़ा। इसमें नारी जीवन की त्रासदी को उजागर करने वाली उनकी कालजयी पंक्ति है, 'अबला जीवन हाय, तेरी यही कहानी। आंचल में दूध और आंखों में पानी।'

मैथिलीशरण गुप्त का साहित्यिक दृष्टिकोण 'गृहस्थ कवि' का था। वे नारी-मुक्ति के पक्षधर तो थे, लेकिन उनकी मुक्ति को मर्यादा, त्याग और राष्ट्रीय कर्तव्य के आदर्शों के भीतर ही सीमित रखा। उन्होंने घरेलू जीवन के बलिदानों को राष्ट्रीय स्तर के महाकाव्यिक महत्व के बराबर ला खड़ा किया।

गुप्त का काव्य-शिल्प परंपरापुष्टता और प्रयोगधर्मिता का अद्भुत संगम था। वे परंपरा को तोड़े बिना आधुनिक होने की कला में पारंगत थे। उन्होंने अपनी सरल, स्पष्ट और नैतिकता-प्रधान शैली के माध्यम से खड़ी बोली को इतना सहज और ग्राह्य बना दिया कि वह आम पाठक तक पहुंच सके।

उनके विपुल सृजन में लगभग 40 खंडकाव्य शामिल हैं, जिनमें पंचवटी (1925), द्वापर (1936), और स्वतंत्रता के बाद लिखा गया 'जय भारत' (1952) प्रमुख हैं।

साहित्यिक और राष्ट्रीय आंदोलन में उनके अद्वितीय योगदान के चलते, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद मैथिलीशरण गुप्त को भारतीय संसद के उच्च सदन, राज्यसभा, के लिए मनोनीत किया गया। उनका यह कार्यकाल (1952-1964) दर्शाता है कि स्वतंत्र भारत ने भी उनके सांस्कृतिक और साहित्यिक योगदान को राष्ट्रीय महत्व दिया।

उनके जीवन के अंतिम वर्षों में, 1954 में, उन्हें भारत गणराज्य के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक, पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। यह सम्मान 'राष्ट्रकवि' के दर्जे पर अंतिम और आधिकारिक मुहर थी।

12 दिसंबर 1964 को, 78 वर्ष की आयु में, लंबी बीमारी के बाद मैथिलीशरण गुप्त का निधन हो गया। उन्होंने हिंदी कविता के इतिहास में युगों का अंतर किया और आज भी वे विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम और भारतीय चेतना का एक अनिवार्य हिस्सा बने हुए हैं।

[AK]

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