देश के प्रधानमंत्री बदलते रहे, कूटनीति के स्वर बदलते रहे, लेकिन एक चीज स्थिर रही और वह अयंगर का भरोसा था कि विज्ञान सिर्फ अनुसंधान नहीं, राष्ट्र की इच्छाशक्ति का प्रमाण है। वह ऐसे वैज्ञानिक थे जो परमाणु शक्ति को हथियार नहीं, आत्मनिर्भरता का तर्क मानते थे। मुंबई के भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र की प्रयोगशालाओं से लेकर राजस्थान के पोखरण तक और फिर देश के नीति-गृहों तक, उनका सफर एक ऐसी परतों में चलने वाली यात्रा थी जहां उत्साह, जोखिम, गोपनीयता और वैज्ञानिक दुस्साहस मिलकर एक राष्ट्रीय निर्णय बन जाते हैं।
वह 40 साल तक भारत के परमाणु (Paramanu) ऊर्जा विभाग में रहे। 1984 में भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के निदेशक और 1990 में परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष हुए। उनकी उपलब्धियों को एसएस भटनागर पुरस्कार ने पहचाना और पद्म भूषण ने स्वीकार किया, लेकिन असली सम्मान तो वह था जब डॉ. होमी जे भाभा ने अपने हाथों से ऐसे युवा को चुना और कहा कि यही आगे चलकर भारत की क्षमता गढ़ेगा।
यह कहानी 1950 के दशक की है। एक युवा अयंगर कनाडा की चॉक रिवर लैबोरेटरी में काम कर रहा था। प्रो. ब्रॉकहाउस के साथ मिलकर न्यूट्रॉन स्कैटरिंग (Neutron Scattering) पर पांच महत्वपूर्ण शोधपत्र लिखे और फिर दुनिया को यह समझाने का साहस दिखाया कि नाभिकीय अनुसंधान में भारतीय दिमाग किसी पश्चिमी प्रयोगशाला से कम नहीं। वर्षों बाद जब ब्रॉकहाउस को नोबेल मिला, तो उस उपलब्धि में अयंगर के वैज्ञानिक हस्ताक्षर भी दर्ज थे, भले ही नाम मंच पर एक ही रहा। भारत लौटा तो अयंगर ने वह प्रयोगशाला-सिद्धांत एक टीम, फिर एक आंदोलन में बदल दिया, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित न्यूट्रॉन स्कैटरिंग समूह की नींव रखी।
हालंकि, उनके साहस की असली परीक्षा 18 मई 1974 थी, जब पोखरण में भारत ने दुनिया से छिपकर 'स्माइलिंग बुद्धा' चलाया। वैज्ञानिक (Scientist) उपकरण का मूल डिजाइन, गुप्त तैयारियां, विस्फोट की संभावना और असफलता का जोखिम, इन्हीं सबकी धुरी पर वह वैज्ञानिक खड़ा था। किसी ने उनसे पूछा कि अगर उपकरण फेल हुए तो? इस पर अयंगर ने कहा कि अगर यह असफल होता है, तो असफलता मेरी नहीं, भौतिकी की होती। ऐसे दौर में जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद वैज्ञानिक वर्चस्व को अपनी संपत्ति समझता था, भारत उस सीमा से बाहर निकलने वाला पहला देश बना और उसके केंद्र में अयंगर का सटीक दिमाग खड़ा रहा।
उनकी दृष्टि बम बनाने की नहीं थी; वह प्रयोगशाला से आगे जाकर समाज, तकनीक और राष्ट्र की आत्मा में विज्ञान भरना चाहते थे। वह कोल्ड फ्यूजन जैसे विवादास्पद विषयों पर भी अडिग रहे। उन्होंने प्रयोग किए, टीम बनाईं, आलोचनाएं झेलीं, पर विश्वास नहीं छोड़ा कि भौतिकी आज जितनी है, उससे आगे भी कुछ है। उनका मानना था कि तकनीक और बुनियादी विज्ञान अगर अलग हो जाएं, तो नवाचार मर जाता है।
जीवन के अंतिम वर्षों तक वे विदेशी रिएक्टरों के आयात के मुखर विरोधी रहे। उन्होंने माना कि विज्ञान को सीखने की आजादी चाहिए, लेकिन तकनीकी आत्मनिर्भरता राष्ट्र की रीढ़ है। किसी भौगोलिक दीवार या किसी दमनकारी प्रतिबंध से ज्ञान को रोका नहीं जा सकता। यही कारण था कि वे कहते थे कि अमेरिका का वैज्ञानिक नेतृत्व इसलिए फलता है क्योंकि प्रतिभाएं रोकी नहीं जातीं, वे घूमती हैं, बढ़ती हैं, और प्रवाह बनाती हैं। विज्ञान बंद दरवाजों के पीछे पैदा नहीं होता।
21 दिसंबर 2011 को उनका निधन हुआ। वह दुनिया को अलविदा कह गए। उनके निधन के एक साल बाद, अयंगर परिवार ने उनकी स्मृति में पुरस्कार शुरू कराया। इस पुरस्कार के प्राप्तकर्ता भारतीय नागरिक होने चाहिए, भारत में कार्यरत होने चाहिए और किसी भारतीय संस्थान से संबद्ध होने चाहिए। डॉ. पीके अयंगर पुरस्कार में एक प्रशस्ति पत्र और ₹1.50 लाख की नकद राशि शामिल है।
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