बात 6वीं सदी की है। महाराष्ट्र में एक प्रतापी संत हुए, जिनका नाम पुंडलिक था। ये अपने माता-पिता के अनन्य भक्त थे। वो भगवान श्री कृष्ण को अपना ईष्ट मानते थे। पर काल का फेर किसी की बुद्धि फेर सकता है। ऐसा ही कुछ इनके जीवन में भी हुआ। एक समय ऐसा भी आया जब इन्होंने अपने ईष्ट के साथ-साथ अपने माता-पिता दोनों को बाहर निकाल दिया। इसके बाद कुछ ऐसा हुआ जिसके कारण वो परम मातृ-पितृ भक्त बन गए। वह वृतांत किसी और लेख में पढ़ेंगे। अभी तो हम जानेंगे पंढरपुर में श्रीकृष्ण के कमर पर हाथ रखकर खड़े होने के विग्रह के रहस्य के बारे में।
जब पुंडलिक को घोर अपराध बोध हुआ तो वो माता-पिता को घर वापस लाए और वापस से श्री कृष्ण की भक्ति में संलग्न हो गए। इनकी अनन्य भक्ति से प्रसन्न होकर एक दिन श्री कृष्ण रुकमणीजी के साथ पुण्डलिक के द्वार पर प्रकट हुए। प्रभु ने पुंडलिक से कहा कि वो उनके घर अतिथि बनकर पधारे हैं। परंतु उस दिन पुण्डलिक अपने माता-पिता के पैर दबा रहे थे, और उनका पीठ द्वार की ओर था। इस परिस्थिति में पुण्डलिक ने कहा कि वो माता-पिता के सेवा में संलग्न हैं, माता-पिता शयन में हैं सो वह अभी अतिथि सत्कार करने में असक्षम हैं। पुण्डलिक ने उन्हें सुबह तक प्रतीक्षा करने का आग्रह किया। यह कहते हुए उन्होंने एक ईंट आगे बढ़ दिया बैठने के लिए। उसके बाद पैर दबाने में वो पुनः लीन हो गए।
जब सुबह हुई तो द्वार पर कोई नहीं था, बल्कि ईंट पर भगवान कृष्ण की प्रतिमा थी जो कमर पर हाथ रखे हुए मुद्रा में थी। कहा जाता है तबसे भगवान कृष्ण कमर पर हाथ बांधे खड़े आज भी अपने भक्त का इंतजार कर रहे हैं। ईंट पर खड़े होने के कारण उन्हें विट्ठल कहा गया, क्योंकि महाराष्ट्र में ईंट को विठ या विठो कहा जाता है। इस घटना के बाद उनके इस स्वरूप की लोकप्रियता जल्दी ही पूरे संसार में बढ़ गई।
पुंडलिक ने उस विट्ठल रूप को अपने घर में विराजमान किया और वह स्थान महाराष्ट्र का सबसे प्रसिद्ध तीर्थ पुंडलिकपुर (अब पंढरपुर) कहलाया। भक्त और भगवान की इस अद्भुत घटना की याद में यहां प्रतिवर्ष मेला लगता है।
इस मंदिर में श्रीकृष्ण रूप में विठ्ठल और माता रुक्मिणी की पूजा होती है। देशभर से कृष्णभक्त पुंडलिक के वारकरी संप्रदाय और श्रीकृष्णभक्त के लोग दूर-दूर से पताका- डिंडी लेकर प्रतिवर्ष आसाढ़ मास के देवशयनी एकादशी के दिन यहां आते हैं और एक महापूजा का आयोजन होता है।