भारत में अक्सर देखा जाता है कि लोग रिटायरमेंट के बाद का जो समय होता है उसे आराम से अपने परिवार के साथ बिताते हैं और अपने जीवन के सभी शौक़ को पूरे करते हैं। लेकिन दिल्ली की गलियों और सड़कों पर आपको एक अलग ही शख़्स नज़र आएंगे। जिनके हाथ में पैम्पलेट (Pamphlet), चेहरे पर दृढ़ निश्चय और आँखों में शांति (Peace) का सपना लिए यह बुज़ुर्ग शख़्स जिनका नाम है विपिन कुमार त्रिपाठी (Professor Vipin Kumar Tripathi) , जो कि आईआईटी दिल्ली के पूर्व प्रोफेसर है, और वो 77 साल की उम्र में भी समाज से नफ़रत और हिंसा को मिटाने के मिशन पर दिल्ली के सड़कों पर निकले हुए हैं।
त्रिपाठी मूल रूप से एक वैज्ञानिक थे। उन्होंने अमेरिका के यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड में 1976 में रिसर्च शुरू की थी। वो फ्यूज़न प्लाज़्मा यानि न्यूक्लियर एनर्जी से जुड़ा एक कठिन विषय पर काम कर रहे थे और पूरी तरह से शैक्षणिक जीवन जी रहे थे। उस समय उनका राजनीति या सामाजिक आंदोलनों से कोई संबंध नहीं था। लेकिन 1982 में उनकी ज़िंदगी बदल गई, और उस साल ( इज़रायल) ने लेबनान के बेरूत में एक फ़लस्तीनी ( फिलीस्तानी) शरणार्थी कैंप पर बमबारी की। इस हमले में करीब 20 हज़ार लोग मारे गए थे। यह खबर को पढ़कर और अमेरिका के रवैये को देखकर वो अंदर तक हिल गए थे । उन्हें लगा कि विज्ञान और ज्ञान की कोई अहमियत नहीं होती है अगर इंसानियत (Humanity) ही ना बची हो तो, इसी झटके ने उन्हें भारत लौटने का फ़ैसला लेने पर मजबूर कर दिया।
1983 में वो भारत लौट आए और आईआईटी दिल्ली में फ़िज़िक्स के प्रोफेसर बने। यहाँ उन्होंने रिसर्च, पढ़ाई और छात्रों के साथ सामाजिक मुद्दों पर खुली चर्चा शुरू की। उनका कहना है कि "जनता के पास हथियार नहीं होते, लेकिन उनके पास आत्मबल होता है। उसी आत्मबल से अन्याय और हिंसा का सामना किया जा सकता है।" यहीं से उनका सफर केवल विज्ञान तक सीमित नहीं रहा, बल्कि समाज और राजनीति के सवालों तक पहुँच गया।
उसके बाद 1989 में बिहार के भागलपुर में भीषण सांप्रदायिक दंगे हुए। दो महीने तक चले इस सांप्रदायिक टकराव में 1000 से अधिक लोग मारे गए, जिनमें ज़्यादातर मुस्लिम समुदाय के लोग थे। इस घटना ने त्रिपाठी (Professor Vipin Kumar Tripathi) को एक बार फिर झकझोर कर रख दिया। उन्होंने महसूस किया कि भारत में बढ़ती सांप्रदायिकता को रोकने के लिए कोई ठोस पहल करनी होगी।
इसी साल उन्होंने कुछ साथियों के साथ मिलकर "सद्भाव मिशन" की नींव रखी की। इसका मकसद था शिक्षा और संवाद के ज़रिए नफ़रत को कम करना, दंगा पीड़ितों की मदद करना, बच्चों और युवाओं को सांप्रदायिकता के खतरे के बारे में जागरूक करना उसके बाद मोहल्लों और बस्तियों में शांति का संदेश फैलाना। सद्भाव मिशन कोई राजनीतिक संगठन नहीं था, बल्कि यह एक गैर-राजनीतिक और मानवीय पहल थी। सद्भाव मिशन ने शुरुआत से ही एक अलग तरीका अपनाया। इस मिशन में भाषणों और नारेबाज़ी की बजाय उन्होंने तथ्यों और तर्कों पर ज़ोर दिया।
1990 में जब बीजेपी ने रथ यात्रा शुरू की, तो त्रिपाठी ने "आत्ममंथन यात्रा" निकाली थी, इसमें उन्होंने 4000 से ज़्यादा पैम्पलेट बाँटकर लोगों से नफ़रत की बजाय करुणा चुनने की अपील की। उसके बाद 1992 में बाबरी मस्जिद टूटने के बाद उन्होंने "देश में हिंसा" नामक पैम्पलेट तैयार किया। इस पैम्पलेट की 40 हज़ार कॉपियाँ पूरे देश में बाँटी गईं। उनके पैम्पलेट आम भाषा में लिखे होते हैं, ताकि आम जनता आसानी से समझ सके। आपको बता दें आज भी वो दिल्ली की गलियों में पैदल चलते हैं, और लोगों से नफ़रत के ख़िलाफ़ बात करते हैं उसके बाद अपने पैम्पलेट बाँटते हैं।
सद्भाव मिशन सिर्फ़ पैम्पलेट तक सीमित नहीं रहा। इसने शिक्षा और बच्चों के विकास को भी अपना आधार बना लिया। इस मिशन में गरीब बस्तियों में बच्चों के लिए क्लास लगाई जाती है। स्कूल और कॉलेजों में गणित और भौतिकी की वर्कशॉप आयोजित की जाती है। सरकारी छात्रवृत्ति योजनाओं का लाभ न मिलने पर आवाज़ उठाई जाती है, और दंगा पीड़ित बच्चों को फिर से स्कूलों में दाखिला दिलाने की पहल की जाती है। त्रिपाठी का मानना है कि शिक्षा ही असली रास्ता है, जिससे लोग अंधभक्ति और सांप्रदायिक सोच से बाहर निकल सकते हैं।
हाल के वर्षों में उन्होंने फ़लस्तीन मुद्दे पर भी लगातार आवाज़ उठाई है। 2023 से वो ग़ाज़ा में चल रहे नरसंहार के खिलाफ़ भारत सरकार की चुप्पी को चुनौती दे रहे हैं। उसके बाद वो इस साल स्वतंत्रता दिवस पर दिल्ली के राजघाट पर उपवास रखा और इसके साथ ही कहा कि "गांधी की धरती से इस आज़ादी दिवस पर हम गैर-हिंसक विरोध के ज़रिए ग़ाज़ा के लोगों की भूख और मौत के खिलाफ़ खड़े हों।" हालाँकि, इस शांतिपूर्ण विरोध में उन्हें पुलिस की प्रताड़ना और अपमान भी झेलना पड़ा। इसके बाद उनका वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल भी हुआ और बहुत से लोग उनकी हिम्मत से प्रेरित हुए।
त्रिपाठी (Professor Vipin Kumar Tripathi) का मानना है कि उनकी बात सीधे-साधे 100 में से केवल 5 लोगों तक भी अगर पहुँचती है तो यह उनके लिए बहुत है। वो इस बात को मानते हैं कि बदलाव धीरे-धीरे जरूर होता है। हर एक पैम्पलेट (Pamphlet) से, हर एक बातचीत से और हर एक विरोध प्रदर्शन से और वो कहते हैं की यह एक छोटी सी लहर है, जो आगे जाकर बड़ी लहर में बदल सकती है।
35 साल से ज्यादा समय से वो विरोध ही झेल रहे हैं। इन सब में कभी लोगों ने उन्हें ताना मारा, कभी पुलिस ने रोका-टोका, तो कभी विरोधियों ने अपमानित किया। लेकिन त्रिपाठी का कहना है कि "सच बोलने का साहस ही सबसे बड़ा हथियार होता है।" यही कारण है कि आज भी वो रोज़ निकलते हैं और अकेले ही सही, लेकिन समाज को जगाने की कोशिश करते रहते हैं।
निष्कर्ष
77 साल की उम्र में भी विपिन कुमार त्रिपाठी (Professor Vipin Kumar Tripathi) जिस साहस और समर्पण के साथ नफ़रत और हिंसा का विरोध कर रहे हैं, वह अपने आप में एक मिसाल है। उन्होंने विज्ञान की प्रयोगशालाओं से निकलकर समाज की गलियों तक सफ़र तय किया है। उनकी कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि असली देशभक्ति यही होती है कि आप अपनी ज़िंदगी आराम से बिताने के बजाय, समाज की भलाई और इंसानियत (Humanity) की रक्षा के लिए संघर्ष करें। विपिन कुमार त्रिपाठी आज अकेले चलते हैं, लेकिन उनके कदम आने वाली पीढ़ियों के लिए रास्ता बना रहे हैं। [Rh/PS]