इसका केंद्र किल्लारी गांव (Kendra Killari Village) में जमीन से करीब 10 किलोमीटर की गहराई में था। एक के बाद एक तीन झटकों से सब कुछ चंद पलों में ही तहस-नहस हो गया। पक्के-कच्चे घर मिट्टी के ढेर में बदल गए। सड़कें फट गईं, पेड़ उखड़ गए और चारों तरफ चीख-पुकार मच गई। हजारों लोग मलबे में दब गए और पूरा गांव मातम में डूब गया।
ये एक ऐसा दिन है जो इतिहास के पन्नों पर काले अक्षरों में दर्ज है। हर साल 30 सितंबर को उस भयावह हादसे में मिले जख्म हरे हो जाते हैं। यह अनंत चतुर्दशी का दिन था, जब गणपति विसर्जन की धूम पूरे महाराष्ट्र में थी। हर तरफ ढोल-नगाड़ों की गूंज, भक्तों की भक्ति और बप्पा को विदाई देने का उत्साह था।
किल्लारी और आसपास के गांवों में लोग देर रात तक विसर्जन के उत्सव में डूबे रहे। रात गहराने के साथ थके हुए लोग अपने घरों में लौटे और फिर पूरा गांव गहरी नींद में सो गया, लेकिन किसी को नहीं पता था कि यह शांति महज कुछ घंटों की मेहमान थी।
यह भूकंप सिर्फ किल्लारी तक सीमित नहीं रहा। लातूर और उस्मानाबाद (अब धाराशिव) जिलों के 52 गांव इसकी चपेट में आए। लातूर का औसा और उस्मानाबाद का उमरगा तालुका इस प्राकृतिक आपदा से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए।
रकारी आंकड़ों के मुताबिक, इस आपदा में लगभग आठ हजार लोगों की जान चली गई, जबकि अनुमान है कि वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा थी, क्योंकि कई शव मलबे में दबे रह गए। 16 हजार से ज्यादा लोग घायल हुए और लगभग उतने ही जानवर मारे गए। हजारों घर पूरी तरह या आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हो गए।
किल्लारी और आसपास के गांवों का तो जैसे वजूद ही मिट गया। सुबह की पहली किरण के साथ तबाही का मंजर सबके सामने था।
लोग अपनों को मलबे में ढूंढ रहे थे, लेकिन जवाब में सिर्फ सन्नाटा और आंखों के सामने मलबे के ढेर थे। इस दुख के पहाड़ ने पूरे महाराष्ट्र को गम में डुबो दिया। भूकंप ने न सिर्फ लोगों के घर छीने, बल्कि उनके अपनों को, यादों को और उनकी जिंदगी की रौनक को भी छीन लिया था।
भूकंप के समय जो बच्चे थे, वे अब जवान हो चुके हैं। उन युवाओं ने अपने अस्तित्व की लड़ाई नए सिरे से शुरू कर दी है, मगर किल्लारी के लोग आज भी उस रात को याद कर सिहर उठते हैं, जब उनकी दुनिया पलभर में उजड़ गई थी।
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