शब्दों के हवाले से संस्कृत की संस्कृति को एक नई दिशा

संस्कृत पढने के इच्छुक छात्रों को संस्कृत के ज्ञान के साथ ही नैतिक संस्कारों के बारे में जानकारी दी जाएगी। (Pixabay)
संस्कृत पढने के इच्छुक छात्रों को संस्कृत के ज्ञान के साथ ही नैतिक संस्कारों के बारे में जानकारी दी जाएगी। (Pixabay)

हर भाषा में कुछ ऐसे शब्द होते हैं, जिनका शुद्ध अनुवाद कर पाना कठिन है। उस असमंजस में हम अनुवादित भाषा में आस पास के किसी शब्द का प्रयोग कर, अपनी बात तो कह जाते हैं पर क्या वह अनुवादित शब्द- असल शब्द के मनोभाव और उसके रस के साथ न्याय है ?

लेखन के प्रति अपने झुकाव और शब्दों के प्रेम जाल में होने की वजह से ही इस विषय पर चर्चा करना मुझे न्यायसंगत जान पड़ता है।

हाल ही में इस ओर काम करते हुए, Sanskrit Non-Translatables किताब का विमोचन हुआ है। शब्दों को गंभीरता से समझने की उनकी कोशिश की वजह से, उनका ज़िक्र करना अनिवार्य हो जाता है।

'जैसा है', 'वैसा ही' प्रयोग में लाने की आवश्यकता

Sanskrit Non-Translatables: The importance of Sanskritizing English, श्री राजीव मल्होत्रा ​​और डॉ सत्यनारायण दास के अथक प्रयासों का फल है।

लेखकों के अनुसार संस्कृत में ऐसे कई शब्द हैं जिनका अंग्रेज़ी में उचित अनुवाद कर पाना असंभव है। इसलिए उन शब्दों के मूल अर्थ को बिना तोड़े-मरोड़े, बिना उनके सात्विक भाव के साथ खिलवाड़ किए, बिना लापरवाह तरीके से अनुवाद किए, उन्हें 'जैसा है', 'वैसा ही' प्रयोग में लाने की आवश्यकता है।

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जाने माने विद्वान और लेखक श्री नित्यानंद मिश्रा लिखते हैं कि अंग्रेज़ी के 'translation' शब्द के लिए संस्कृत में शब्द है 'अनुवाद' , जिसका शाब्दिक अर्थ है 'फिर से कहना' या 'फिर से बयान देना'। परिभाषा के अनुसार, अनुवाद – संस्कृत से किसी दूसरी भारतीय भाषा में या संस्कृत से किसी अन्य भाषा जैसे अंग्रेज़ी में या संस्कृत से संस्कृत में भी किया जा सकता है।

श्री मिश्रा लिखते हैं, "अनुवाद के समय शब्दों के मूल अर्थ का काफी बड़ा हिस्सा कहीं खो जाता है, जब अनुवादित भाषा में संस्कृत जैसी संस्कृति या उस जैसी संपन्न विरासत नहीं होती। यह अर्थ के खो जाने का डर और बड़ा हो जाता है जब संरचित, समृद्ध, शुद्ध और प्रभावी संस्कृत भाषा का अनुवाद अंग्रेज़ी में किया जाता है।"

अपने प्रयासों को प्रबल रखते हुए श्री राजीव मल्होत्रा और डॉ सत्यनारायण दास ने you tube पर वीडियो सीरीज़ के रूप में एक अनोखी पहल की है। वीडियो में दोनों लेखकों के बीच बातचीत के दौरान संस्कृत के Non-Translatables और आमतौर पर उनकी जगह दुरुपयोग में आए अंग्रेज़ी शब्दों के संदर्भ में कई बातें होती हैं।

यहाँ पर आप उस तरह की कुछ वीडियोज़ को देख सकते हैं –

डॉ सत्यनारायण दास अपना तर्क रखते हुए कहते हैं कि , "संस्कृत का 'अ' और अंग्रेज़ी का अक्षर 'a' समान नहीं है। भगवद गीता के दसवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने कहा है, अक्षराणामकारो-अस्मि (अक्षरों में पहला अक्षर हूँ) यानी 'अ', हालांकि…यह भाव तब कहीं खो जाता है जब हम इसे अंग्रेज़ी में 'a' अक्षर के रूप में अनुवादित करते हैं क्योंकि संस्कृत अक्षरों में ध्वनि बारीकियां होती हैं जिन्हें अंग्रेज़ी में दोहराया नहीं जा सकता। हमारी संस्कृती, या परिशोधन की खोज, संस्कृत भाषा पर आधारित है और हमें यह समझना होगा कि दो विशाल भिन्न भाषाओं के बीच कभी भी सतही समानता नहीं हो सकती है।

संस्कृत शब्दवाली असीम है, और महर्षि पाणिनि ने इस भाषा को चार हज़ार सूत्रों में बाँधा हैं। किन्तु यह शर्म की बात है कि हमारी आधुनिक शिक्षा ने हमें वो असमर्थता भेंट की है कि हम पाणिनि के बारे में कुछ नहीं जानते। पर अब समय है कि संस्कृत के अध्ययन के माध्यम से अपनी संस्कृति को पुनः प्राप्त करें। क्योंकि संस्कृत के बिना संस्कृति नहीं है। हमारे यहाँ, संगीत और नृत्य की समझ सिमित है। हमारी संस्कृति हमारे शास्त्रों में निहित है।"

संस्कृत की संस्कृति

यह पहल किस हद तक धर्म को बचाएगी, इसका अनुमान तो मैं नहीं लगा सकता मगर संस्कृत की संस्कृति को एक नयी दिशा अवश्य मिलेगी। और इसके माध्यम से संस्कृत से अंग्रेज़ी अनुवादों में भी सहायता को प्राप्त किया जा सकेगा।

संस्कृत का प्रचार मात्र भारत तक सिमित ना रह कर, अंग्रेज़ी जानने वाले हर इंसान तक प्रकाशमय होगा। क्योंकि संस्कृत भाषा में ऐसी कई बातों का उल्लेख है जिसका सार, धर्म से परे जा कर, मानवता और प्रकृति के संदर्भ में ज्ञान को कई नई दिशाओं में विस्तृत करता है।

इस लेख में HinduPost पर Dr. Nandini Murali के छपे अंग्रेज़ी आर्टिकल के कुछ अंशों के हिंदी अनुवाद को शामिल किया गया है। न्यूज़ग्राम किसी भी तरीके से किताब के प्रचार में सम्मिलित नहीं है।

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