आओ! ‘आज’ को समझे द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की पंक्तियों से

(Unsplash)
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हाथ में ध्वजा रहे बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी रुके नहीं
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं.
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!(वीर तुम बढ़े चलो!)

'बच्चों के कवि' द्वारिका प्रसाद सदा बच्चों का हौसला बढ़ाने वाली कविताओं की रचना करते रहे, किन्तु क्या 'कल के भविष्य' में, कुछ कर गुज़र जाने का हौसला है? वह इसलिए क्योंकि आज के आधुनिक दौर में हम सबने सोचना छोड़ दिया है। आज की दोहरी विचारधाराओं में हमारा मस्तिक्ष सही गलत का बोध भूल गया है। वह यह नहीं जानता कि संस्कृति बड़ी है या आधुनिकरण। जिसका उदाहरण है यूट्यूब पर वह सैकड़ों वीडियोज़ जिसमे आज के युवा को देश के प्रथम प्रधानमंत्री का नाम तक नहीं पता।

देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से
सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से
जाति भेद की, धर्म-वेश की
काले गोरे रंग-द्वेष की
ज्वालाओं से जलते जग में
इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है॥(इतना ऊँचा उठो!)

आज टुकड़े-टुकड़े वालों का यह आतंक है कि एक पिता अपनी ही बेटी पर जान से मारने की धमकी देने का आरोप लगा रहा है। यह सही है कि किसी अन्य धर्म पर तंज या कटाक्ष कसना गलत है, मगर केवल एक ही धर्म को सालों तक कोसना कहाँ तक ठीक है? हिन्दू टेरर या भगवा आतंकवाद जैसे शब्दों की क्या जरूरत है जब आतंकवाद का कोई धर्म नहीं? यह इसलिए भी जरुरी है क्योंकि आतंकवाद के नाम पर एक ही देश का नाम याद आता है और उस देश में रह रहे बहुसंख्यक धर्म का। जिसने 26/11 और पुलवामा जैसे अपराध को जन्म दिया।

सरस्वती का पावन मंदिर
यह संपत्ति तुम्हारी है।
तुम में से हर बालक इसका
रक्षक और पुजारी है।
शत-शत दीपक जला ज्ञान के
नवयुग का आह्वान करो।(उठो धरा के अमर सपूतों)

किन्तु ऊरी-सर्जिकल स्ट्राइक फिल्म की एक पंक्ति बड़ी जोशवर्धक है कि "यह नया भारत है, यह घर में घुसेगा भी और मरेगा भी" और सर्जिकल स्ट्राइक पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले का सटीक जवाब है। 'हिंदुस्तान' स्वयं में एक एक मंदिर है जहाँ सभी संप्रदाय के लोग एकजुट हो कर रहते हैं, मगर कुछ हैं जिन्हे इस अखंडता से चिढ़ है। वह पूरी कोशिश करते हैं इसमें बाधा बनने की। उदाहरण के रूप में कश्मीर में पीडीपी की नेता बोलती हैं कि हिंदुस्तान का झंडा नहीं उठाएंगे। ए.आई.एम.आई.एम के नेताओं को हिंदुस्तान शब्द से ही आपत्ति है, तथाकथित बुद्धिजीवियों का अवॉर्ड वापसी का नाटक तब क्यों रुक जाता है, जब एक मंदिर की मूर्तियों को तोड़ा जाता है। तब उन्हें असहिष्णुता क्यों नज़र नहीं आता है?

"अरे ओ! दुःशासन निर्लज्ज!
देख तू नारी का भी क्रोध।
किसे कहते उसका अपमान
कराऊँगी मैं इसका बोध॥(सत्य की जीत: भाग 1)

लव-जिहाद के विरोध में आए कानून का विरोध क्यों? या राजनीति चमकाने के लिए और तबके को खुश करने के लिए क्या हम अत्याचार को भी भुला दें? यह सवाल भी कभी खुद से करना। क्योंकि इन सत्ताधारियों को उस पायदान पर हमने ही पहुँचाया है।

(सभी कविताएं द्वारिका प्रसाद द्वारा रचित अलग-अलग कविताओं का छोटा सा अंश है।)

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