शिक्षा, धर्म और संस्कृति इन तीनों को गठजोड़ एक नई मिसाल को जन्म देता है। आज हम एक ऐसे व्यक्तित्व के विषय में जानने जा रहे हैं, जिन्होंने देश की शिक्षा एवं राजनीति में अहम योगदान दिया। आज हम बात करेंगे भारत के पहले उप-राष्ट्रपति व दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के विषय में, जिनकी आज 46वीं पुण्यतिथि है।
6 सितम्बर 1888 में तिरूतनी गांव, तमिलनाडु में डॉ. राधाकृष्णन का जन्म हुआ। उनका जन्म एक निर्धन परिवार में हुआ, जिनमे पिता का नाम था सर्वपल्ली वीरास्वामी और माता का नाम था निरम्मा। वह 6 संतानों में दूसरी संतान थे। बाल्यावस्था से ही राधाकृष्णन एक तीव्र बुद्धि के छात्र थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव के विद्यालय में ही हुई और प्रतिभाशाली छात्र होने के कारण उच्च शिक्षा हेतु उनका दाखिला संचालित लुर्थन मिशन स्कूल तिरुपति में हुआ। फिर वर्ष 1900 में उन्होंने वेल्लूर कॉलिज से शिक्षा ग्रहण कर, 1906 में दर्शन शास्त्र में एम.ए की परीक्षा उत्तीर्ण किया।
शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात डॉ. राधाकृष्णन ने कई शिक्षा संस्थानों में प्राध्यापक के रूप में सेवा दी। वह विश्व के प्रसिद्ध विश्व- विद्यालय ऑक्सफ़ोर्ड में भी भारत दर्शन शास्त्र के शिक्षक बनें। उसके बाद वह अपने ही महाविद्यालय के उप-कुलपति चुने गए और एक वर्ष बाद उन्होंने बनारस विश्वविद्यालय में उपकुलपति का पद संभाल लिया।
सन 1954 में शिक्षा और राजनीतिक क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान देने के लिए देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। वह वर्ष 1952 से 1962 के बीच देश के पहले उप-राष्ट्रपति के पद पर आसीन रहे। उप-राष्ट्रपति के पद पर उनके कार्यशैली और फैसलों ने सभी को प्रभावित किया जिसके पश्चात 1962 में उन्हें निर्विरोध राष्ट्रपति चुन लिया गया।
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने वेदांत के सिद्धांत पर थीसिस लिखी जिसका शीर्षक था − 'एथिक्स आफ वेदांत एंड इट्स मेटाफिजिकल प्रीपोजिशन्स', जो उन आरोपों का जवाब था कि वेदांत व्यवस्था में सिद्धांतों के लिए कोई स्थान नहीं है। जिस समय यह थीसिस प्रकाशित हुई उस समय उनकी उम्र महज 20 वर्ष थी।
यह भी पढ़ें: अखंड भारत के नवरचनाकार 'सरदार'
वर्ष 1921 महाराजा कॉलेज के छात्रों ने डॉ. राधाकृष्णन के लिए विदाई समरोह का आयोजन किया। छात्रों ने आग्रह किया कि वह समरोह में सजे हुए घोड़ा गाड़ी में आए। डॉ. राधाकृष्णन ने भी अपने छात्रों की इच्छापूर्ति के लिए यह न्योता भी स्वीकार किया। जैसे ही वह घोड़ा गाड़ी पर चढ़े उनके छात्रों ने प्रिय शिक्षक के लिए गाड़ी को खींचने का कार्य संभाला और घोड़ों की जगह वह गाड़ी को खीचने लगे।;
डॉ. राधाकृष्णन, संपूर्ण विश्व को एक विद्यालय के रूप में देखते थे। उनके कार्य, निर्णय और शैली को आज भी कुछ युवा अपनाने की कोशिश करते हैं। किन्तु दुर्भाग्य वश देश में जिन विश्वविद्यालयों की कल्पना उस डॉ. राधाकृष्णन ने की थी वहां देश विरोधी गतिविधियां चिंता उत्पन्न करती हैं। आज डॉ. राधाकृष्णन के पुण्यतिथि पर बदलती मानसिकता और विचाधाराओं पर सोचना होगा।