"कट्टरता का बिगुल फूँक कर कब तक हुड़दंग मचाएगा, कब तक चाकू तलवार उठेगा और कब जाने तू पछताएगा?"
कट्टरता के नाम जो ज़ुल्म ढाया जा रहा है, क्या यह इस मानसिकता को नहीं दर्शाता कि यह सदियों से दिल में दबी आग का नतीजा है? फ्रांस के राष्ट्रपति ने जो कहा वह सही है या गलत वह हर एक का अपना व्यक्तिगत सोच है। भारत उन चुनिंदा देशो में से एक है जिसने फ्रांस का इस्लामिक आतंकवाद के खिलाफ समर्थन किया है। किन्तु सोचने की बात यह है कि इस देश में ही कुछ लोग हैं जिन्हे आतंकवाद से प्रेम है और वह मानते हैं कि फ्रांस में हुई शिक्षक की हत्या जायज़ है, और वह कोई नहीं मशहूर शायर मुनव्वर राणा हैं।
क्या खुद को चमकाने के लिए हत्या जैसे अपराध को जायज़ कहना सही होगा? और क्यों केवल एक धर्म के विषय में सभी का मत छिन्न-भिन्न हो जाता है? विश्व में 50 ऐसे देश हैं जिनमे अधिकांश मुस्लिम आबादी रहती है और विश्व में 180 करोड़ लोग इस्लाम धर्म से नाता रखते हैं। मुद्दा यह है कि जब भी आतंकवाद के विषय में बात होती है तब इस्लाम का भी ज़िक्र हो जाता है। इसके पीछे अनेक कारण हैं कुछ आप जानते हैं और कुछ आप अनसुना कर देते हैं।
पहला तो यह कि इस्लाम अल्पसंख्यक तबका नही है, विश्व की कुल आबादी का 24 प्रतिशत मुस्लिम है। दूसरा, कट्टरता को अपनी जागीर समझने वाले धर्म गुरु और शिक्षक बाकियों में नफ़रत का ज़हर भर रहे हैं। तीसरा, अगर कोई मुस्लिम किसी अन्य धर्म के विषय में गलत कह दे तब इस देश का एक बुद्धिजीवी कुनबा उनके समर्थन में उतर आता है, किन्तु अन्य धर्म के लोग इस्लाम के खिलाफ कुछ बोल दे तो विश्व भर में इस्लामिक समाज एक जुट हो जाता है। जिसका सबसे नया उदाहरण है फ्रांस। चौथा, खासकर भारत में राजनीति को धर्म ने जकड़ लिया है और वह अल्पसंख्यकों के वोटबैंक के लालच में सब हत्कंडे अपनाएं जा रहे हैं। उदाहरण स्वरूप बंगाल में हिंदू पर्व को रोक दिया जाता है किन्तु इस्लामिक त्यौहार के लिए लॉकडाउन तक खोल दिया जाता है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद भी एआई.एम.आई.एम नेता असदुद्दीन औवेसी यह कहते हैं कि राम मंदिर को तोड़ कर वहीं मस्जिद का निर्माण होगा।
कट्टरता के नाम पर जान ले ली जा रहीं है, हाल ही में फ्रांस के एक चर्च में तीन महिलाओं की गाला-रेत कर हत्या कर दी गई और हत्यारा मुस्लिम था। किन्तु इस विषय कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं आएगी मगर इस्लामोफोबिया का ढिंढोरा पीटने वाले हुड़दंग मचाते रहेंगे। आज अभिव्यक्ति की आज़ादी को मज़ाक बना कर छोड़ दिया गया है, और आज़ादी के विषय में JNU से बेहतर कौन जनता है। जाकिर नाइक उन में से ही एक है जो नफरत फ़ैलाने को अपना कर्तव्य समझते हैं।