By : अभिषेक कुमार
राज्य सभा में सयुंक्त सचिव पद से सेवानिवृत्त अनिल गांधी (Anil Gandhi) ने अपने पहले उपन्यास 'ब्यूरोक्रेसी का बिगुल और शहनाई प्यार की' (Bureaucracy Ka Bigul Aur Shahnai Pyar Ki) में दलित वर्ग के लिए अपनी संवेदना और थिएटर संसार को बड़ी बारीख कलम से अलंकृत किया है। कहानी छोटे शहर की उस बौखलाहट में तैरती है जहाँ एक दलित ब्यूरोक्रेट महिला और थिएटर डायरेक्टर के बीच की लव स्टोरी के पदचाप समाज की बदशक्ल सीरत के दर्शन खुद-बखुद करा देते हैं।
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मेरा यह सौभाग्य रहा कि इस साक्षात्कार के ज़रिये मैं उन्हें और उनके उपन्यास को थोड़ा और करीब से जान पाया। पेश हैं साक्षात्कार के कुछ अंश :
अनिल गाँधी : यह उपन्यास एक विचित्र लेकिन मधुर लव स्टोरी है। इसमें दो ऐसे पात्र हैं जो अपना-अपना इतिहास साझा करते हुए एक साथ चलने का प्रयास करते हैं। इस प्रयास में उत्सुकता, बेचैनी, कलह, रोमांस, संघर्ष, इन सब का मधुर मिश्रण है।
इस यात्रा में हमें इंडियन ब्यूरोक्रेसी और थिएटर संसार के दर्शन भी हो जाते हैं। उपन्यास में छोटे शहरों में जीवन, वहां का रंगमंच, जाति वयवस्था की करुण वास्तविकताएँ, और भ्रष्टाचार की जटिलताओं पर ध्यान जाता है। बतौर लेखक दलित वर्ग के प्रति मेरी सहानुभूति रही है और यहाँ मैं भारतीय न्यायपालिका को भी नाज़ुक कलम से छू कर निकला हूँ। हमारे भारतीय समाज की गहराइयों में ही अलका और नील का प्रेम प्रसंग सांस भरता है।
अनिल गाँधी : यह प्लॉट बहुत पहले से ही मेरे मन में था। मैंने अपनी आँखों से लोगों को मैला उठाते हुए देखा है। उन्हीं में एक मासूम सी लड़की थी जिससे अलका का चरित्र प्रेरित है। उन लोगों के हाल पर दिल भर आता है। पीढ़ियों से दलित वर्ग के साथ जो जानवरों जैसा बर्ताव होता आ रहा है, इसी कारण से उनके प्रति सदा ही संवेदनशील रहा हूँ। उनके लिए सहानुभूति रही है। उपन्यास में भी अलका की पृष्ठभूमि कुछ इसी तरह की है। लिखते समय भी मैं अलका को लेकर अत्यधिक भावुक था। अपने इस पात्र के साथ मेरी हमदर्दी आज भी कायम है।
बाकी राज्य सभा का हिस्सा रहने के कारण सरकारी महकमे से मेरी नज़दीकियां अधिक हैं और इसी नाते मैं ब्यूरोक्रेसी को करीब से समझता हूँ। दूसरी तरफ मेरे अंदर थिएटर को लेकर बचपन से ही एक तड़पन रही है। उसी कुलबुलाहट ने नील के किरदार को जन्म दिया है। नील की ही तरह मेरी भी इच्छा थी कि एक छोटे से शहर में मेरा अपना थिएटर ग्रुप हो। तभी मन में ख्याल आया कि क्यों ना दुनिया की इन अलग-अलग इकाइयों को एक प्रेम सूत्र में गूंथ लिया जाए। और फिर ऐसे ही इस विचित्र लव स्टोरी का जन्म हुआ जो आज आप सभी के सामने है।
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अनिल गाँधी : लगभग 6 महीने। 18 मार्च को मुंबई से घर लौटा…इच्छा नहीं थी लेकिन महामारी ने मजबूर कर दिया, क्या करें! फिर खालीपन ने सालों से मन में विचरण कर रही इस कहानी को जगाना शुरू किया और मैंने लिखना। ज़्यादातर मैं रात में ही लिखा करता था। और जैसे ही सौ पन्ने पूरे हुए, लगा की बस…अब यह उपन्यास पूरा हो जायेगा।
उपन्यास के लेखक अनिल गाँधी।
अनिल गाँधी : पहले और अब के थिएटर में काफी अंतर आ चुका है। और यह सिर्फ मैं नहीं हर रंगकर्मी महसूस कर रहा है। संक्षेप में कहूं तो पहले के दर्शकों में सयंम और अनुशासन, दोनों हुआ करता था। आज इसकी कमी साफ झलकती है। पहले जब दर्शक नाटक के बीच से उठ कर जाता था, तो सिर झुका कर! नाटकों के बीच इंटरवल्स हुआ करते थे। आज इतने बड़े नाटक में लोग बोर हो जाया करते हैं।
दूसरा, उस समय में रंगमंच को गंभीरता के साथ किया जाता था। एम.के रैना और फैज़ल अलका जैसे रंगकर्मी थे। आज उतने विचारशील नाटक कम देखने को मिलते हैं। तीसरा, आज के समय में अखबारों में नाटकों की समीक्षा ना के बराबर है। आपको जान कर हैरानी होगी कि मेरे समय में श्री राम सेंटर में बेसमेंट हुआ करता था जिसका किराया 90 रुपए था। वहां मैंने सौरभ शुक्ला के साथ 'अपना अपना दांव', 'कविता का अंत' जैसे नाटक किए हैं। लेकिन आज की डेट में एक ऑडिटोरियम की कीमत बहुत ज़्यादा है। उसी के हिसाब से नाटकों की टिकट भी महंगी रखनी पड़ती है जिसे बहुत कम लोग खरीदते हैं।
और देखो अभिषेक, पहले के समय में थिएटर कलाकार भी समर्पित और व्यवस्थित हुआ करते थे। समय पे आना, तरीके से काम करना, यह सब था। आज उसकी कमी भी बहुत खलती है।
अनिल गाँधी : अगर उसमें अलका जैसे लोग हों तो थिएटर के लिए बहुत कुछ हो सकता है। ऐसे लोग जो सांस्कृतिक गतिविधियों में रुचि रखते हों और उन्हें उसकी समझ भी हो। सरकार के ही सहयोग से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय या एफ.टी.आई.आई जैसी संस्थाएं विकसित हैं। लेकिन अगर सरकार, जिले-कस्बों में रंगकर्मियों के लिए सरकारी थिएटर्स भी बनाए तो यह एक बड़ा कदम होगा।
मुझे यह भी लगता है कि थिएटर में हो रहे भ्रष्टाचार के लिए भी सरकार को कोई ठोस कदम उठाना चाहिए। क्योंकि नाटकों के लिए मिल रहे ग्रांट में पारदर्शिता की कमी बढ़ रही है।
अनिल गाँधी : उन्हें बस यह कहना चाहूंगा कि पाठक को ध्यान में रख कर लिखें। आपको पता होना चाहिए कि आप किसके लिए लिख रहे हैं। जैसे मैं यह सोच के चला हूँ कि मेरा यह उपन्यास युवा वर्ग को अधिक पसंद आएगा।
अनिल गाँधी : एक तो इस उपन्यास को बोलचाल की भाषा में लिखा गया है। जैसी भाषा का प्रयोग हमारा आज का युवा करता है यानी सरल हिंदी और साथ में उर्दू, इंग्लिश, पंजाबी और हिंगलिश भी। आज के 'युवा विचारों' को उपन्यास के कई पात्र सामने लाते हैं जैसे नील के दोनों बच्चों को ही ले लो। भारत और इंडिया के बीच फर्क खोजना या इंडियन ब्यूरोक्रेसी पर छींटाकशी करना उनकी मजबूरी है। नील और उसकी बेटी ईशा के स्वछंद रिश्ते को सम्भवतः हमारा युवा वर्ग ही कबूल पाएगा। शायद इन्हीं कारणों से एक पाठक ने मुझसे कहा कि यह उपन्यास समय से आगे है।
अनिल गाँधी : भविष्य में मेरी कोशिश रहेगी कि पाठक और लेखक के बीच की बढ़ रही खाई को कहीं ना कहीं कम कर सकूं! इसी नाते मेरा अगला उपन्यास अंग्रेज़ी में होगा ताकि अधिक लोगों तक मेरी बात और मेरी किताब दोनों पहुंच सकें। और अभी मैं अपने इस हिंदी उपन्यास को पटना, भोपाल, राँची आदि शहरों की साहित्यिक दुकानों में भेजने के लिए डिस्ट्रीब्यूटर्स से बातचीत कर रहा हूँ। क्योंकि हिंदी का पाठक अमेज़न और फ्लिपकार्ट से ज़्यादा इन दुकानों में मिलता है। हाल-फिलहाल उसी के लिए प्रयासरत हूँ।
" मैं बड़ा कलाकार बनना चाहता था लेकिन बन नहीं पाया "
– अनिल गाँधी
अनिल गाँधी के लिए उनकी वाइफ मंजु कूलेस्ट हैं।
मानेसर के मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मा एक लड़का, जिसे बचपन में दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट ने हमेशा ही अपनी ओर आकर्षित रखा। जो अपनी व्यक्तिगत और सांसारिक ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए अपने सपनों से बार-बार दूर हुआ। जिसने अपने भीतर के कलाकार को कभी मरने नहीं दिया। जिसने मोहन राकेश, सआदत हसन मंटो और प्रेमचंद जैसे महान साहित्यकारों से प्रेरणा ली। जो आज अपना पूरा जीवन थिएटर और साहित्य को समर्पित करने को तैयार है। कुछ ऐसे ही हैं 'ब्यूरोक्रेसी का बिगुल और शहनाई प्यार की' (Bureaucracy Ka Bigul Aur Shahnai Pyar Ki) उपन्यास के लेखक अनिल गाँधी !
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अनिल गाँधी (Anil Gandhi) के उपन्यास को पढ़ने के बाद मुझे इसका एहसास हुआ कि यह उन सभी लोगों के लिए 'Must Read' है जो थिएटर से प्रेम करते हैं या अपने भारतीय समाज को और करीब से जानने के इच्छुक हैं।