भारत में ऐसे अनेकों वीर जन्मे हैं, जिन्होंने अपना सर्वस्व अपने देश और धर्म के संरक्षण में न्यौछावर कर दिया। वह शासक जिन्होंने न स्वार्थ देखा, न मोह के माया में स्वयं को जकड़ा, इनके लिए जन-कल्याण ही परम-कर्तव्य था। प्राचीन भारत ने ऐसे कई हिन्दू शासकों को सेवा का अवसर दिया, जिन्होंने विस्तार से अधिक विकास को मोल दिया। सिंध देश के आखिरी राजा दाहिर सेन, मराठा एवं भारत के गौरव छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, चन्द्रगुप्त मौर्य, ऐसे अनेकों नाम हैं जिन्होंने भारत को इस्लामिक और विदेशी आक्रमणकर्ताओं से अपने राज्य एवं राष्ट्र को बचाया। ऐसे एक वीर शासक से आज परिचित कराऊंगा जिनका नाम है 'कपिलेन्द्रदेव राउत्रे', जिन्हें दक्षिण में हिन्दू संस्कृति एवं धर्म का संरक्षक भी कहा जाता है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि कपिलेन्द्रदेव राउत्रे के इतिहास को लम्बे समय तक जनता से वंचित रखा गया। इस तथाकथित लिबरल देश में बच्चों की किताबों में भी इनके जीवन को 3 से 4 पंक्तियों में समेट दिया गया।
कपिलेन्द्रदेव राउत्रे के विषय में एक कथा बहुत प्रसिद्ध है कि एक बार मात्र 12 वर्ष की उम्र में वह बाघ के सामने निर्भीक खड़े थे। यह इस घटना में कितनी सच्चाई है यह नहीं कहा सकता है, किन्तु लोक कथाओं में इस प्रसंग का प्रयोग किया जाता है। कपिलेन्द्रदेव राउत्रे का जन्म जागेश्वर राउता और बेलामा के घर 1400 के दशक की शुरुआत में हुआ था। कहा जाता है कि बचपन में कपिलेन्द्रदेव राउत्रे जगन्नाथ पूरी मंदिर के बाहर भिक्षा मांगते थे, किन्तु ज्योतिष ज्ञाताओं ने कपिलेन्द्रदेव के विषय में यह भविष्यवाणी की थी कि इनका भाग्य राजा के समान है।
बाघ की कथा के कारण उस समय कलिंग के गंगा राजवंश के अंतिम शासक भानुदेव 'चतुर्थ' की नजर कपिलेन्द्र पर पड़ी। वह बालक उन्हें भाने लगा, जिसके कुछ समय बाद भानुदेव ने कपिल को गोद ले लिया। कपिलेन्द्र ने राजा भानुदेव के निरीक्षण में सैन्य प्रशिक्षण के गुण सीखे और युवावस्था में प्रवेश करते ही उन्हें कलिंग के सेनापति का पदभार सौंपा गया। यह सभी घटना जगन्नाथ पूरी मंदिर के मदाला पंजी में पंजीकृत है। 14वीं शताब्दी के मध्य के भारत में, राजनीतिक स्थिति काफी अस्थिर थी। दिल्ली का सिंहासन एक कमजोर शासक, सैय्यद के अधीन था। वहीं बंगाल इलियास शाही सुल्तानों के अधीन था। पश्चिमी भारत में गुजरात और मालवा भी मुसलमानों के अधीन था। पूर्वी यूपी और आसपास के इलाकों में जौनपुर या शर्की सुल्तानों का शासन था। ओडिशा के दक्षिण में, बहमनी सुल्तान अपना विस्तार कर रहा था। यानि अधिकांश क्षेत्रों में मुसलमानों का कब्जा था।
इसी बीच कलिंग के शासक भानुदेव चतुर्थ की सेहत डगमगाने लगी, जिस कारण राज-काज में रुकावटें उत्पन्न होने लगी। जिसके उपरांत कलिंग राज्य में भी अन्य राज्यों ने तख्तापलट की कोशिश की। भानुदेव चतुर्थ के मृत्यु के उपरांत दिनांक 29 जून 1435 को कपिलेन्द्रदेव राउत्रे को कलिंग की राजगद्दी सौंप दी गई। उन्होंने तुरंत अपने गढ़ को व्यवस्थित करना प्रारम्भ किया, इसके साथ ओड्डाडी के विद्रोही मत्स्य, नंदपुरा के सालिवमसी प्रमुखों, पंचधारला के विष्णुवर्धन चक्रवर्ती और खिमंडी के गंगा के विद्रोह को दबा दिया। इस प्रकार उन्होंने ओडिशा के सूर्यवंशी गजपति वंश की नींव रखी।
जौनपुर, बंगाल और बहमनी यह तीनों पड़ोसी राज्य जिसके मुस्लिम सुल्तान थे, हमेशा से ओडिशा पर आक्रमण का षड्यंत्र रचा करते थे। इसके अलावा, राजमुंदरी और विजयनगर साम्राज्य के रेड्डी भी उड़ीसा साम्राज्य के क्षेत्रों पर जबरन कब्जा कर रहे थे। किन्तु कपिलेन्द्र युद्ध कौशल के साथ-साथ राजनीति में भी निपुण थे। उन्होंने राजनीति एवं युद्ध कौशल की सहायता से सभी क्षत्रुओं को परास्त कर दिया।
सर्वप्रथम, बंगाल के सुल्तान ने कपिलेन्द्र को युद्ध चुनौती दी और यह चुनौती अचानक थी। किन्तु जब वीर का खून खौलता है तो सामने आया हर सुल्तान कुचला जाता है और बंगाल के सुल्तान के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। वह आया था ओडिशा को हथियाने किन्तु वापस गया मुँह की खाकर। कपिलेन्द्र ने न केवल आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया, बल्कि अधिकांश क्षेत्रों पर भी अपना वर्चस्व जमा लिया और कहा जाता है कि कपिलेन्द्र ने गंगा नदी तक अपनी सीमा बढ़ा दी थी। इससे भी पहले, वर्ष 1444 में कपलिंद्र देव ने जौनपुर द्वारा किए गए आक्रमण को खदेड़ दिया था। बंगाल के सुल्तान को कुचलने के बाद, कपिलेंद्रदेव की सेना ने, कपिलेन्द्र जैसे सक्षम पुत्र हम्वीरा देव के नेतृत्व में, रेड्डी सेना को भी हराया और वर्ष 1454 तक कोंडाविदु किले के साथ राजमुंदरी पर भी कब्जा कर लिया।
महाराजा कपिलेन्द्रदेव राउत्रे का साम्राज्य। (Wikimedia Commons)
बहमनी सेना और उसका सेनापति संजर खान आम हिन्दू लोगों पर बर्बर अत्याचार कर रहा था। कई हिंदू पुरुषों और बच्चों को या तो मार दिया गया या गुलाम बनाकर बेच दिया गया, जबकि हिंदू महिलाओं का बलात्कार किया गया। 1456 ई. में हुमायूँ शाह बहमनी सल्तनत के सिंहासन पर चढ़ा और उसके सेनापति सिकंदर खान ने देवरकोंडा पर कब्जा करने के बाद विद्रोही प्रमुखों की आवाज को दबा दिया। इसके उपरांत क्षेत्र के हिंदुओं ने कपिलेंद्रदेव से मदद मांगने का विकल्प अपनाया। वर्ष 1458 में देवरकोंडा की लड़ाई में, राजकुमार हम्वीरा के नेतृत्व में ओडिया सेना ने वेलमास के समर्थन के साथ बहमनियों को मसल दिया। युद्ध के पश्चात कपिलेन्द्रदेव की सेना ने बहमनियों से वारंगल क्षेत्र छीन लिया। इस जीत के बाद, उन्हें कलाबर्गेश्वर (कलबुर्गी के भगवान) की उपाधि से सम्मानित किया। हालाँकि, बहमनियों के अत्याचार का प्रतिशोध अभी बाकी था। 1462 में, उन्होंने बहमनियों को दंडित करने के लिए एक अभियान शुरू किया और ओडिया सेना उसकी राजधानी बीदर पर कब्जा करने की कगार पर थे। लेकिन तभी कपिलेन्द्र को खबर मिली कि जौनपुर के शर्की सुल्तान ने एक विशाल सेना के साथ हमला कर दिया है। बल और राजनीति के आगे अहम कब तक टिक पाता है, कपिलेन्द्रदेव ने जौनपुर के सुल्तान को भी हराया और फिर उन्होंने बहमनी साम्राज्य को नष्ट करने के लिए अपनी सेना के साथ उसकी राजधानी बीदर पर चढ़ाई शुरू की, और कुछ समय बाद बहमनी साम्राज्य का पतन हो गया। कपिलेन्द्रदेव का साम्राज्य गंगा के तट से लेकर कावेरी के तट तक विस्तृत था।
इससे पहले वर्ष 1460 के दशक में विजयनगर साम्राज्य पर हमला किया, उन्होंने पहले विजयनगर की राजधानी हम्पी पर आधिपत्य स्थापित किया और उसके बाद नेल्लोर, मुन्नूर में उदयगिरि पर कब्जा कर लिया और उसके उपरांत वह दक्षिण में थिरुचिरापल्ली और तंजौर पहुंचे। इन सभी क्षेत्रों पर स्वामित्व स्थापित करने में हम्वीरा देव का अहम योगदान था। कपिलेन्द्रदेव राउत्रे को उनका पूरा शीर्षक दिया गया जो था "गजपति गौश्वर नवकोशी करण कलावर्गेश्वर" अर्थात नौ किलों के भगवान (अर्थात कोंडाविडु, चंद्रगिरी, आर्कोट) और कर्नाटक कलाबर्गी (गुलबर्गा क्षेत्र) और गौडेश्वर (बंगाल) के भगवान।"
कपिलेंद्र देव वैष्णव अनुवायियों और संस्कृति के संरक्षक माने जाते थे। उन्होंने पूरी में जगन्नाथ मंदिर का विस्तार का कार्य किया था। उनके संरक्षण में, जगन्नाथ पूरी मंदिर में नाटक, नृत्य और कला के अनेक रूपों के उत्थान का कार्य शुरू हुआ। कपिलेंद्रदेव, वैदिक संस्कृति के भी महान संरक्षक थे और उन्होंने परशुराम बिजय नामक एक संस्कृत नाटक भी लिखा था। ओडिया भाषा उनके शासनकाल के दौरान प्रशासन की आधिकारिक भाषा बन गई। उनके संरक्षण में, ओडिया कवि सरला दास ने ओडिया महाभारत को सरला महाभारत के नाम से लिखा। उनके द्वारा कई अन्य कवियों और लेखकों को भी बढ़ावा दिया गया।
यह थी गाथा कपिलेन्द्रदेव राउत्रे की!
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