किसान आंदोलन : कंधा किसान का बंदूक राजनीतिक दलों की

किसान आंदोलन का फायदा कई राजनीतिक दल उठा रहे हैं।(फाइल फोटो)
किसान आंदोलन का फायदा कई राजनीतिक दल उठा रहे हैं।(फाइल फोटो)

By: Navin kumar Sharma

कृषि अधिनियम पर हुई पाँचवे दौर की वार्ता को लेकर इस बात का अंदाज पहले से ही लग रहा था कि किसान नेता बात को उलझाने की कोशिश करेंगे और हुआ भी वही। वार्ता से पहले और बाद के वक्तव्यों को गौर से समझने की कोशिश की जाये तो यह बात स्पष्ट होती दिख रही है कि आंदोलन और किसान नेताओं पर प्रभाव किसी एक राजनीतिक दल का न होकर, कई दल और संगठनों का हैं। इन राजनीतिक दलों के दिशानिर्देशों का ही परिणाम है कि वार्ता के दौरान एमएसपी, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग आदि मुद्दो को दरकिनार करते हुए किसान नेता, सरकार से तीनो अधिनियमों को वापिस लेने की जिद पर अड़ गए हैं। किसान नेताओं की यह दलील है कि जब सरकार एमएसपी आदि मे संशोधन करने को तैयार है तो वह इन तीनों अधिनियमों को वापिस क्यों नही ले लेती। जब सरकार किसानों की बात सुनने, संशोधन करने और अधिनियम को और व्यवहारिक बनाने को तैयार है तब इस तरह की, की गई माँग अनेक प्रश्न खड़े कर रही है। दिन रोज़ बदलती मांगे, यह इशारा कर रही है कि इनका और इनके राजनीतिक सिपहसालारों का उद्देश्य, किसानों के नाम पर इस आंदोलन को जटिल से जटिल बनाते हुए राजनीतिक स्वार्थसिद्ध करना भर मात्र हैं।

देखने वाली बात यह है कि किसानो के साथ पाँचवे दौर की वार्ता शुरु होने से पहले देश के गृहमंत्री, रक्षामंत्री, रेलमंत्री, कृषि मंत्री आदि ने कृषि बिल पर उत्पन्न हुई स्थिति को लेकर, प्रधानमंत्री के साथ गहन मंत्रणा की। जिसको लेकर सियासत के गलियारों मे अनेक तरह की अटकले लगाई गईं। कहीं यह अनुमान लगाया गया कि सरकार अब इस आंदोलन से सख्ती से निपटने का मन बना चुकी है तो कहीं समाधान निकलता हुआ दिख रहा है। मगर केंद्र सरकार, किसान आंदोलन को लेकर बहुत ही सतर्कता और सावधानी के साथ कदम आगे बढ़ाती हुई दिख रही हैं। केंद्रीय मंत्रियों के साथ आंदोलनरत किसानों की तीसरे और चौथे दौर की वार्ता, निस्संदेह किसी निर्णायक मोड़ पर नही पहुँची है। मगर जिस तरह से वार्ता के दौर चल रहे हैं, उससे इतना तो साफ-साफ झलक रहा है कि सरकार ऐसा कोई भी मौका देती दिखाई नहीं दे रही है, जहाँ उसे आसानी से सवालों के कटघरे में खड़ा किया जा सके। केंद्र सरकार की रणनीति विपक्षी दलों के उस प्रयास को असफल करने में पूरी तरफ़ से सफल रही है जिसमे विपक्ष केंद्र सरकार को किसान विरोधी, स्थापित करते हुए राजनीतिक बढ़त हासिल करती।

किसानों के विभिन्न संगठनों की बदलती मांगे, उग्र होते तेवर एक अलग ही कहानी कहते नज़र आ रहे हैं। आंदोलन के शुरु में एमएसपी, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग आदि को लेकर सवाल खड़े करने की जो कोशिश की गई, बाद में ये किसान नेता पराली, बिज़ली का बिल, डीज़ल के दामों आदि की तरफ़ खिसकते-खिसकते अब इन तीनों बिलों को समाप्त करने की जिद पर अड़ गए हैं। एमएसपी को लेकर किसानों ने पहले भी अनेक आंदोलन किए हैं। किसान इस बात को मानते भी है कि एमएसपी उनकी उपज के लागत मूल्य से बहुत कम होती हैं। किसान ने इस समस्या के हल के लिए अनेकों असफल लड़ाईयां लड़ी हैं। उनकी यह बहुत पुरानी मांग भी रही है कि उनको उपज का मूल्य तय करने का अधिकार दिया जाए ताकि किसान आर्थिक रुप से मजबूत हो सके और देश के विकास मे उनकी हिस्सेदारी और अधिक हो सके।

किसान आंदोलन के लिए झुटे हुए किसान संघठन। (फाइल फोटो)

किसानों के इस आंदोलन में जहाँ पाँच सौ से अधिक किसान संगठन अपनी सहभागिता का दावा करते हुए केंद्र सरकार से उनकी बाते सुनने की मांग रहे है। वहीं वह किसानों के हित की मांगों को लेकर न तो एक राय और न ही उनके बीच कोई समन्वय दिख रहा हैं। इतना ही नहीं जब ये किसान नेता सरकार से प्रश्न करते है कि किसानों ने या उनके संगठनों ने जब किसानों के भले की मांग सरकार से नहीं की, तो यह अधिनियम सरकार को लाने की क्या जरुरत थी? यह प्रश्न अपने आप यूपीए के शासनकाल की तरफ़ ध्यान खींच लेता हैं जब किसानों और खेती को ध्यान में रख कर जून 2004 में  स्वामीनाथन कमेटी का गठन किया गया था। स्वामीनाथन कमेटी ने 2006 तक यूपीए सरकार को पाँच बार अपनी सिफारिशे सौंपी मगर यूपीए सरकार ने 2013 तक न तो उन सिफारिशों पर कोई ध्यान दिया और न ही उनको लागू करने की कोशिश की। जबकि आज यही किसान नेता उन सिफारिशों को लागू करने की मांग कर रहे हैं। जब किसान स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को लागू करने की बात करते है, तब वह यह भूल जाते हैं कि यह तीनों अधिनियम उन्ही सिफारिशों के आधार पर न केवल ड्राफ्ट किए गए हैं बल्कि सरकार ने उन्हें लागू भी किया है।

इस आंदोलन के अप्रत्यक्ष प्रायोजक (राजनीतिक दल)पहले जहाँ इस बात को लेकर खासे परेशान रहे कि यदि किसान नेता, केंद्र सरकार द्वारा अधिनियम में संसोधन की बात मान गये तो उनकी बनी बनाई रणनीति पर पानी फिर जाएगा। मगर अब उनकी बेचैनी इस बात को लेकर और बढ़ गई है कि कहीं दूसरे प्रतिद्वंदी राजनीतिक दल इससे (आंदोलन से) राजनीतिक लाभ ना उठा ले जाएं। इसी बेचैनी के कारण "8 दिसम्बर का भारत बंद" का जो आह्वान इन्होने किसान नेताओं से करवाया, उसकी कमान अपने हाथ मे लेने की नीयत से न केवल समर्थन करते हुए सामने आए है बल्कि प्रदर्शन स्थलों पर अपने नेताओं की हाजरी लगवाना भी शुरु कर दिया। कल तक जिस किसान आंदोलन को गैर राजनीतिक स्थापित करने में दिन रात एक किए गए थे, अब उसकी असलियत सभी के सामने आ रही है। इस बात मे दो राय तो पहले भी नही था कि कृषि अधिनियम के विरोध की रूपरेखा बनाई ही राजनीतिक दलों ने थी। हां! यह बात अलग है कि जब खुद को असफल होता हुआ देखा तो इन्होने अपनी राजनीति की बंदूक किसानों के कंधे पर रख दी। पंजाब में सत्ताधारी कांग्रेस ने खुद अपनी सक्रिय भागीदारी में प्रदेश के अन्दर और बाहर प्रदर्शन करने की पूरी कोशिशे की थीं। साथ ही राजनीति की बिसात पर हो रहे इस किसान आंदोलन की रणनीति बनाने में बंगाल से लेकर पंजाब तक के अधिकांश विपक्षी राजनीतिक दलों की भूमिका को सिरे से खारिज भी नही किया जा सकता हैं। 

लोकतांत्रिक शासन प्रणाली मे सभी को अपनी असहमति व्यक्त करने का संवैधानिक अधिकार हैं। मगर यह अधिकार तभी तक हैं जब तक किसी दूसरे के संवैधानिक अधिकारों में बाधा न पैदा हो रही हो।सर्वोच्च न्यायालय ने भी, शाहीन बाग प्रदर्शन को लेकर निर्णय दिया था कि लोकतंत्र मे असहमति व्यक्त करने की स्वतंत्रता तो है, मगर यह स्वतंत्रता तभी तक है जब तक दूसरे की स्वतंत्रता प्रभावित न हो रही हो। आंदोलन के नाम पर जाम नही लगाया जा सकता और निर्दिष्ट स्थान पर ही प्रदर्शन करने की अनुमति होगी। होना भी यही चाहिए था मगर आज जानबूझकर सर्वोच्च-न्यायालय के निर्णय की अवमानना की जा रही है। दिल्ली की सीमाओं पर इकठ्ठा किए जा रहे प्रदर्शनकारियों के साथ, मौसम अथवा किसी अन्य कारण से कोई जनहानि हुई तो उसके लिए कौन उत्तरदायी होगा? क्या अपने राजनीतिक स्वार्थ में मदमस्त यह राजनीतिक दल इसकी जिम्मेंदारी लेने को तैयार हैं??

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