स्वामी चिन्मयानन्द वह आध्यात्मिक गुरु थे जिन्होंने हिन्दू ग्रन्थ एवं श्रीमद्भगवत गीता को विश्व-भर में प्रसारित किया। उन्होंने विश्व को गीता के ज्ञान की उपयोगिता के विषय में बताया। खास बात यह थी कि कभी भी अन्य धर्म पर किसी प्रकार की टिप्पणी को साझा न करते हुए वह अध्यात्म के पथ पर चलते रहे। स्वामी चिन्मयानन्द कहते थे कि-
"भगवान हमारे जीवन में ईंधन के समान हैं, जिनके बिना गाड़ी कुछ दूर भी आगे नहीं बढ़ सकती है। किन्तु, कहाँ जाना है? इसका नियंत्रण चालक के हाथ ही में होता है।"
स्वामी चिन्मयानन्द का जन्म 8 मई 1916 को केरल राज्य के इरनाकुलम शहर में हुआ था। 'स्वामी चिन्मयानन्द', उनको यह नाम आध्यात्मिक पथ पर चलते समय मिला था, किन्तु उनका वास्तविक नाम था बालकृष्ण मेनन। बालकृष्ण ने वर्ष 1942 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हुए 'भारत छोड़ो आंदोलन' में अहम भूमिका निभाई थी। जिसके लिए उनके खिलाफ ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तारी का वारंट भी जारी किया था। यह खबर बालकृष्ण को मिलते ही, वह अंग्रेजों से बचते हुए पहले अबोटाबाद गए और फिर दिल्ली।
दो साल बाद जब उन्हें लगा कि अंग्रेज सरकार उनकी गिरफ्तारी को भूल चुकी है तब वह पंजाब आए और संगठन के काम में वापस जुट गए। किन्तु अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और कुछ दिनों तक जेल में प्रताड़ित करने के बाद उन्हें सड़क पर बेसहारा और बेसुध छोड़ दिया गया। जेल की दूषित वातावरण में उन्हें टाइफस बीमारी ने जकड़ लिया था। स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार आने के बाद बालकृष्ण ने पत्रकारिता को चुना और नेशनल हेराल्ड अखबार में संवाद-दाता के रूप में काम करने लगे। कुछ ही समय में उनके लेख लोगों में प्रचलित होने लगे और उनका नाम भी प्रचलित होने लगा।
अध्यात्म का प्रसार करते स्वामी चिन्मयानन्द।(Wikimedia Commons)
अध्यात्म से आमना-सामना होने से पहले बालकृष्ण धर्म और रीति-रिवजों में विश्वास नहीं रखते थे। जिस वजह से रीति-रिवाजों का पर्दाफाश करने के लिए वह ऋषिकेश स्वामी शिवानंद सरस्वती जो उस समय के विख्यात आचार्य एवं सनातन धर्म के नेता थे, उनसे मिलने गए। ऋषिकेश में 6 महीने रहने के पश्चात उन्होंने पत्रकारिता का कार्य छोड़ भगवा वस्त्र धारण कर लिया, साथ ही उनका नाम भी बालकृष्ण से स्वामी चिन्मयानन्द हो गया। स्वामी चिन्मयानन्द ने सनातन धर्म के प्रसिद्ध साधु स्वामी तपोवन के सानिध्य में 10 वर्षों तक ग्रंथ एवं शास्त्रों का अध्ययन किया। जब उन्हें लगा कि ग्रंथों में लिखे उपदेशों को अधिक लोगों तक पहुँचाना चाहिए, तब उन्होंने आश्रम छोड़, भारत भ्रमण का फैसला किया। उन्होंने मंदिरों में अपने उपदेश एवं शास्त्रों के ज्ञान को जन-जन तक पहुँचाना आरम्भ किया और कुछ ही समय में उन्हें सुनने वालों की संख्या बढ़ने लगी।
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सनातन धर्म की विशेषताओं को दुनिया में प्रचार-प्रसार करने के लिए 8 अगस्त 1953 को 'चिन्मय मिशन' आरम्भ किया गया। साथ ही बड़े-बड़े शहरों में ज्ञान-यज्ञ को आरम्भ किया गया, फिर यह ज्ञान-यज्ञ छोटे शहरों में भी प्रारम्भ हुआ। कुछ समय बाद स्वामी चिन्मयानन्द विदेशों में भी प्रवचन के लिए जाने लगे और वहां भी ज्ञान-यज्ञ की मांग तेज होने लगी। देश एवं विदेशों में सनातन धर्म के प्रति लोगों की आस्था और भी अटूट होती रही।
ऐसे ही धर्म-गुरु एवं साधुओं ने विश्वभर में सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार किया है और अब यह हमारा दायित्व है कि इस लिबरल दुनिया में सनातन धर्म के उपदेशों को कहीं खोने न दें।