असली Feminism वैदिक काल में था

स्त्रियाँ सदा ही दुर्गा-काली के स्वरुप में प्रतिष्ठित रहीं [Wikimedia Commons]
स्त्रियाँ सदा ही दुर्गा-काली के स्वरुप में प्रतिष्ठित रहीं [Wikimedia Commons]

हिन्दू (Hindu) धर्म पर अक्सर हाय-हल्ला मचाने वाले वामपंथी (Leftist) स्त्री विमर्श (Feminism) पर ये बाते बोलते हुए दिख जाते हैं की 'हिन्दू धर्म ने सदा ही स्त्रियों का शोषण किया है, हिन्दुओं के ग्रन्थ भी इसका समर्थन करते हैं।' ऐसे वामपंथियों (Leftist) के ही घर में ग्रन्थ अक्सर लाल कपड़े में बंधी सदियों से धूल खाती रहती है। उन्हें नहीं पता इतिहास में सीता, द्रौपदी, रुक्मिणी, गार्गी, मैत्रेयि, अरुंधती, अदिति, आदि स्त्रियाँ प्राचीन नारी सशक्तिकरण (Women Empowerment) का प्रतिनिधित्व करती हैं जिन्हें वास्तव में वैदिक काल (Vedic Period) की सबसे बड़ी फेमिनिस्ट (Feminist) के रूप में जाना जाता है। हिन्दू धर्म पर लगातार प्रहार करने वाले वामपंथी कभी इतिहास (History) के पन्नों को टटोलना जायज़ नहीं समझते या फिर वो तथाकथित इतिहासकारों (Historians) के चश्मे से ही इतिहास को देखते आये हैं जो कहते हैं कि वैदिक काल में गौ-हत्या का प्रावधान था, रामायण-महाभारत इत्यादि में वर्णित राम-मंदिर (Ram Mandir), इन्द्रप्रस्थ इत्यादि एक कल्पना मात्र है। देश के पूर्व प्रधानमंत्री भी महाभारत और रामायण को एक मिथक कथाओं के अंतर्गत मानते हैं। ये सभी पर्याप्त कारण हैं कि इतने वर्षों लग गए राम मंदिर है या नहीं पर विचार करने में।

साथ ही जो लोग इन बातों को सुनकर भी चुप रह जाते हैं वो भी दो श्रेणियों में बंट चुके हैं, एक श्रेणी वो है जो सब सुनकर भी इसलिए चुप है क्योंकि वो जो जानते हैं कि ये इनकी कुबुद्धि है, इनको समझाना पत्थर पर सिर मारने जैसा है, दूसरी ओर एक श्रेणी है जिसके बुद्धिजीवी उदारवादी होने का चोला ओढ़े हुए हैं जो इसपर चुप रहते हैं और जहाँ किसी ने इस बात पर विरोध जताया उसे असहिष्णु (Intolerant) करार दे देते हैं।

समूचे समाज को इसपर ध्यान देना चाहिए कि विदेशी आक्रान्ताओं की ये सोची-समझी चाल थी कि हमें हमारे जड़ से, हमारे ग्रंथों से दूर कर दिया जाये। वो जानते थे कि जिस राष्ट्र के युवाओं के हाथ में रामायण-महाभारत होगी, उस राष्ट्र पर ज़्यादा दिन तक शासन संभव नहीं, इसलिए एक सोची-समझी चाल के तहत ग्रंथों को लाल कपड़ों में बंधवा दिया। जब उन्होंने उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक की शिक्षा स्थिति देखी तो वो यह समझ चुके थे कि इस राष्ट्र पर राज करने के लिए इन्हें इनकी धरोहर से दूर करना होगा। मेकाले के शिक्षा नीति से सम्बंधित एक निर्देश से उनके मनसूबे का पुख्ता सबूत मिलता है कि वो शिक्षा की नींव को तोड़ने के लिए कितने ज्यादा आकुल थे।
'हमें ऐसा वर्ग बनाने के लिए जी-जान से प्रयत्न करना चाहिए जो हमारे और उन करोड़ों लोगों के बीच, जिन पर शासन करते हैं, दुभाषिए का काम कर सकें; यह उन लोगों का वर्ग हो जो रक्त और रंग की दृष्टि से भारतीय मगर रुचि, विचारों, आचरण तथा बुद्धि की दृष्टि से अंग्रेज़ हों।'

और यहीं से आक्रान्ता इस काम में सफल हो गए जिसके अंतर्गत हमें अपने संस्कृति से दूर करने की एक कवायद शुरू हो गई। और ये प्रभाव इतने गहन रूप से पड़ा रहा कि आज इतने वर्षों बाद भी ऐसे लोग पैदा हो रहे हैं जो दहेज प्रथा के समर्थन में किताबें लिख रहे हैं।

ऐसे में लाज़मी है वामपंथियों का वार किया जाना जो कहते हैं कि स्त्री सदा से ही शोषित वर्ग का हिस्सा रही है। इनसे ही अन्य विदेशी राष्ट्रों को भी बल मिल जाता है हम पर प्रश्न चिन्ह लगाने का जिसमें सर्वथा प्रश्न ही गलत है।

जिस वैदिक साहित्य और ग्रंथों का हवाला देते हुए ये ऐसी मूर्खतापूर्ण बात करते हैं, उन्हीं ग्रंथों में अनगिनत विदुषियों का ब्यौरा मिलता है जिनसे बड़े-बड़े विद्वान् भी हार मान जाते थे। उदाहरण के लिए गार्गी, मैत्रेयी, अरुंधति, अदिति, जाहु, शिव, वपुना, लोप-मुद्रा, स्वधा, इन्द्राणी, अपाला, श्रीमती, धारणी, यामि, सिद्धा, सुलभा, वेदवती, रोमषा, इत्यादि। इतना ही नहीं जिस मनुस्मृति (Manusmriti) पर ये विवाद करते हैं उसी मनुस्मृति के तीसरे अध्याय के 56वें श्लोक में वर्णित है कि जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नहीं होती है, उनका सम्मान नहीं होता है वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं।
'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।'

जहाँ तक स्त्रियों के अधिकारों की बात है वहां उन्हें हर तरह के अधिकार प्राप्त थे, इतिहास उदाहरणों से भरा पड़ा है। स्वयं द्वारा इच्छित जन्मसाथी का चुनाव, शिक्षिका, महारानी, इत्यादि। हम सब स्वयंवर के विषय में जानते हैं पर फिर भी एक शुतुरमुर्ग की भाँती अपना मुंह अन्धकार के रेत में धंसा लेते हैं जहाँ से उसे कोई नहीं दिखाई देता और उसे लगता है कि उसे कोई नहीं देख रहा। दशरथ की पत्नी कैकयी ने उनका देवासुर संग्राम में प्राण सुरक्षा प्रदान की, श्री राम के गुरुकुल में माता अरुंधती ने उन्हें अथर्ववेद की शिक्षा दी।

इतना ही नहीं राज-काज के विषय में भी स्त्रियों के विचारों का खास महत्व था। सीता, रुक्मिणी, द्रौपदी, इत्यादि इस बात का पुख्ता सबूत हैं कि उन्हें अपने लिए इच्छित वर का चुनाव करने की पूरी स्वतंत्रता थी। यूरोप इत्यादि अन्य सभ्यताओं की भांति भारत में हजारों वर्ष तक स्त्री को कभी दबाया नहीं गया बल्कि दुर्गा-काली के रूप में पुरुष की आह्लादिनी शक्ति के रूप में दिखाया गाया। वह शक्ति, जिसके बिना पुरुष सर्वथा अपूर्ण है। जिस कॉपरनिकस (Copernicus) के सिद्धांत को भी ईश्वर के प्रति अविश्वास समझ कर जिन्दा जला दिया, जो आगे चलकर सही साबित हुआ, वहीं भारत की सभ्यता में नास्तिक और आस्तिक दर्शन को ह्रदय से लगाया।

फ्रीडम का नारा देने वाले देश हर क्षेत्र में स्वतंत्रता की बात करते हैं पर वहीं जब बात उनके ईश्वर और आस्था के विषय में होती है तो उनकी सोच बिलकुल संकीर्ण हो जाती है। जिस स्वतंत्रता की दुहाई देते हुए आजकल लिबरल की एक कौम बन गई है जो समय-समय पर बस बिना सिर-पैर की बयानबाजी करते रहते हैं उनको चाहिए कि वो ग्रंथों को खोलकर पढ़ें। जब वो ध्यान से पढेंगे तो वो यह भी पाएंगें कि कैसे ग्रंथों के साथ समय के अन्तराल में छेड़खानी की गयी।

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