भारत में पैगंबर मोहम्मद के विषय में एक कानून बनाने की मांग उठी है। इस मांग को महाराष्ट्र सरकार के सामने रज़ा एकेडमी तथा तहफ़्फ़ुज़-नमूस-ए-रिसासत नामक इस्लामी संगठनों द्वारा रखा गया है, साथ ही इन संगठनों का साथ दे रहा है महाराष्ट्र की 'वंचित बहुजन आघाडी'।
आपको बता दें कि देश में कई जगहों पर इसी कानून के तहत ही काम होता आ रहा है। एक सर्वे के अनुसार 74% मुसलमान इस्लामी अदालतों की मौजूदा व्यवस्था का समर्थन में हैं। उनके पास आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त इस्लामी अदालतों में परिवार और विरासत से संबंधित मामलों को हल करने का विकल्प है, जिसे दार-उल-क़ज़ा कहा जाता है। काजियों के रूप में धार्मिक मजिस्ट्रेट इन अदालतों की देख-रेख करते हैं और शरिया कानूनों का पालन करते हैं। हालाँकि, इन अदालतों द्वारा लिए गए निर्णयों का कोई कानूनी मान्यता नहीं है।
बहरहाल, पैगंबर मोहम्मद कानून के लिए यह दलील दी गई कि यह कानून सभी पैगंबरों या पंथ प्रमुखों पर अपमानजनक टिप्पणियों से बचाव करेगा। किन्तु क्या यह दलील स्वीकार्य है, वह इसलिए क्योंकि इस विषय पर भारतीय संविधान में पहले से ही कानून मौजूद है।
लेकिन जैसा कि हमने कई बार देखा है कि शरीया कानून मानने वाले, भारतीय संविधान में लिखे कानूनों को मानने से परहेज करते हैं। जिसका उदाहरण आज-कल मौलवियों का पसंदीदा चलन है और वह उदाहरण है सर-काट देने का फतवा जारी करना। यदि कोई इनके धर्म पर सवाल उठाए तो 'सर-तन से जुदा' का नारा और फतवा दोनों जारी कर दिया जाता है। क्या वह इस कानून को पूरे देश में लागु कराना चाहते हैं?
हमें वह दिन भी याद है जब हिंदू समाज पार्टी के प्रमुख कमलेश तिवारी को इसी शांतिप्रिय समुदाय के लोगों ने गोली मारकर कर चाकू से गला रेत दिया था। उनका कसूर इतना था कि उन्होंने पैगंबर मोहम्मद पर एक टिप्पणी की थी। क्या इसी कानून को यह संगठन देश में लागू कराना चाहता है?(SHM)