UN जनसंख्या कोष ने हाल ही में, सभी राष्ट्रों को सार्वभौमिक अधिकार के रूप में, शारीरिक स्वायत्तता (अपने शरीर पर हक) का सम्मान करने के लिए कहा है। उन्होंने कहा कि, आज भी कई महिलाएं और लड़कियां ऐसी हैं, जिन्हें अपनी शारीरिक स्वायत्तता (Bodily Autonomy) के बुनियादी शक्ति से वंचित रखा जाता है। यानी महिलाओं का शरीर आज भी, यातनाओं और हिंसा से पीड़ित है। आज भी वह निडरता पूर्वक अपना जीवन व्यतीत नहीं कर सकती हैं। समाज की मानसिकता और पुरुषों की हैवानियत ने उन्हें आज भी बंधक बनाकर रखा है।
UNFPA के कार्यकारी निदेशक नतालिया कनीम (Natalia Kanem) ने संवाददाताओं से कहा, उन्हें स्पष्ट रूप से बताया की "हमारे शरीर पर स्वायत्तता के अधिकार का मतलब है कि, हमारे पास हिंसा और डर के बिना जीवन जीने का विकल्प होना चाहिए। हमारे विषय में निर्णय लेने का अधिकार केवल हमें होना चाहिए।
एक नई रिपोर्ट "My body is My own" में, UNFPA ने लगभग 60 देशों के डेटा की समीक्षा की है। जो दुनिया के लगभग एक चौथाई आबादी का प्रतिनिधित्व करता है। उन्होंने इसमें पाया की लगभग आधी से ज्यादा महिलाएं अपने स्वास्थ्य की देखभाल सही ढंग से नहीं कर पाती हैं। अपने स्वास्थ्य के विषय निर्णय नहीं ले पाती हैं। चाहे गर्भनिरोधक का उपयोग करना हो या साथी के साथ संभोग करना हो। महिलाओं में अक्सर जानकारी के अभाव के साथ – साथ निर्णय लेने की शक्ति का भी अभाव होता है।
कनीम ने कहा कि, अगर महिलाएं अपने शरीर पर स्वायत्तता रख पाती तो जीवन के अन्य क्षेत्रों में निर्णय लेने की शक्ति की संभावना अधिक बढ़ जाती। लेकिन अक्सर महिलाओं को इस शक्ति से वंचित कर दिया जाता है, जो लेंगीन भेदभाव को उत्पन्न करने वाला सबसे बड़ा कारण है। यही कारण है कि, समाज में असमानताओं को, हिंसा को मजबूती प्राप्त है|
UNFPA के कार्यकारी निदेशक नतालिया कनीम| (VOA)
एक महिला की शारीरिक स्वायत्तता का उल्लंघन करने वाले अपराधों में, हत्या कर देना, जबरन और जल्दी शादी करा देना, कौमार्य परीक्षण और महिला जननांग विकृति शामिल है। जबरन गर्भावस्था या गर्भपात करना यह सभी महिला के अपने शरीर से संबंधित निर्णय लेने की शक्ति का उल्लंघन करता है।
कनीम ने कहा कि, कुछ उल्लंघनों को तो पूरी तरीके से रद्द कर दिया जाता है। यानी उन्हें ठीक समझा जाता है क्योंकि वे सामुदायिक मानदंडों, प्रथाओं द्वारा प्रभावित होते हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि, कई देशों में लैंगिक समानता की संवैधानिक गारंटी भी दी जा चुकी है। लेकिन इसके बावजूद विश्व स्तर पर महिलाएं, पुरुषों के मुकाबले कानूनी अधिकारों का केवल 75 प्रतिशत ही आनंद ले पाती हैं। कई जगहों पर अधिकार मिलने के बाद भी आज भी महिलाएं पुरुषों के मुकाबले कम आंकी जाती है।
कानीम ने बताया कि, COVID-19 ने करोड़ों महिलाओं की स्थिति को और खराब कर दिया है। लॉकडाउन के चलते, महिलाओं पर घरेलू हिंसा में अत्यंत वृद्धि हुई है। यौन हिंसा को बढ़ावा मिला है। नौकरी और शिक्षा से वंचित होने के कारण महिलाओं के लिए नई समस्याओं ने जन्म ले लिया है। जिसके उपचार की कोई खबर तक जानने को नहीं मिलती है।
रिपोर्ट में बताया गया है कि, अब तक किसी भी देश ने कुल लैंगिक समानता को हासिल नहीं किया है। लेकिन, स्वीडन, उरुग्वे, कंबोडिया, फिनलैंड और नीदरलैंड में सबसे अच्छे रिकॉर्ड देखने को मिले हैं। जहां महिलाओं को अपने शारीरिक स्वायत्तता का अधिकार है। लेकिन अब भी कई देश इस ठोस कदम से पीछे हैं।
कनीम ने बताया कि, मानवाधिकार संधियों के तहत दायित्वों को पूरा करने और सामाजिक, संस्थागत और आर्थिक संरचनाओं में बदलाव करके ही सरकार इन असमानताओं को खत्म कर सकती है। लेकिन सरकारें अपनी भूमिका नहीं निभाते हैं। जिस वजह से लैंगिक असमानताओं को आज भी मजबूती प्राप्त है।(VOA-SM)