केचुए (Earthworms) भी आय का जरिया बन सकते हैं, यह सुनने में थोड़ा अचरज हो सकता है, मगर हकीकत में छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) के कांकेर जिले के स्व-सहायता समूह (Self-help Group, SHG) की 10 महिलाओं ने महज एक साल में 1 लाख 37 हजार के केचुए बेचे हैं। इतना ही नहीं अभी भी उनके पास बेचने के लिए केचुए उपलब्ध हैं। खेती करने वाले जानते है कि मिट्टी को उर्वरा बनाने में केचुए बड़ी भूमिका निभाते हैं, लेकिन अब मिट्टी में लिपटे रहने वाले केचुए महिलाओं की आय का जरिया भी बन गए हैं। यहां के गीतपहर गांव की महिलाओं की जिंदगी को खूबसूरत बनाने में यह केचुए बखूबी अपना किरदार निभा रहे हैं।
गीतपहर की महिलाओं की मानें तो केचुओं (Earthworms) से अब न डर लगता है न ही वो इन्हें देखकर दूर भागती हैं, बल्कि केचुओं को ही अपना दोस्त बनाकर महिलाओं ने अपने लिए समृद्धि का द्वार खोल लिया है।
गीतपहर की रहने वाली उर्वशी जैन ने लगभग डेढ़ साल पहले गौठान (Gothan) के माध्यम से केचुआ पालन का काम शुरू किया था और आज सरस्वती महिला स्व सहायता समूह के माध्यम से अब तक 1 लाख 37 हजार रूपए के सात क्विंटल केचुए बेच चुकी हैं और अभी भी इनके पास नए गौठानों और किसानों की आपूर्ति के लिए पर्याप्त केचुए हैं। इसके साथ ही वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) बेचकर 1 लाख 39 हजार रूपए का लाभ भी कमा चुकी हैं।
इस समूह में 10 महिलाएं काम कर रही हैं। इस तरह केचुए (Earthworms) और वर्मी कंपोस्ट (Vermi Compost) ने उनके जीवन में बड़ा बदलाव लाने का काम किया है।
उर्वशी के सरस्वती स्व-सहायता समूह की ही तरह जेपरा ग्राम की रहने वाली संगीता पटेल भी डेढ़ वर्षों में 90 हजार रूपए के पांच क्विंटल केंचुए बेच चुकी हैं और इन्हीं केचुओं की मदद से 40 क्विंटल वर्मी कंपोस्ट बेचकर दो लाख रूपए का लाभ कमाया है।
आखिर महिलाओं ने केचुए को आय का जरिया कैसे बनाया
बताया जाता है कि उर्वशी और संगीता को शुरूआत में कृषि विभाग ने केचुए उपलब्ध कराए थे, लेकिन इन दोनों ने केचुओं की संख्या बढ़ाने के लिए बेहतर वातावरण तैयार किया और अब निजी व्यापारियों के अलावा खुद कृषि विभाग भी इन केचुओं को इनसे खरीद रहा है। उर्वशी और संगीता कहती हैं कि पहले केचुओं को देखकर डर लगता था, लेकिन अब तो ये घर के सदस्य हैं क्योंकि इनसे ही हमें आर्थिक रूप से मजबूती मिल रही है।
(आईएएनएस/PS)