DadaSaheb Phalke: एक ऐसा नाम जिसने सिनेमा की शुरूआत की, फिर भी पहचान को मोहताज

भारत की पहली फिल्म को बनाने के लिए दादासाहेब ने अपनी सरकारी नौकरी तक छोड़ दी वह पुरातत्व विभाग में फोटोग्राफर हुआ करते थे।
DadaSaheb Phalke: एक ऐसा नाम जिसने सिनेमा की शुरूआत की, फिर भी पहचान को मोहताज (WIKIMEDIA)

DadaSaheb Phalke: एक ऐसा नाम जिसने सिनेमा की शुरूआत की, फिर भी पहचान को मोहताज (WIKIMEDIA)

घुंडीराज गोविंद फाल्के

न्यूजग्राम हिंदी: दादा साहेब फाल्के (Dadasaheb Phalke) का असली नाम घुंडीराज गोविंद फाल्के (Ghundiraj Govind Phalke) हैं। यह वही नाम है जिसने भारत में सिनेमा की शुरुआत की थी लेकिन यह नाम आज सिर्फ एक अवॉर्ड तक सीमित होकर रह गया है। सिनेमा के सबसे बड़े उपहार के रूप में दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड ही दिया जाता है।

लेकिन आज कोई भी दादा साहेब के बारे में जानने की इच्छा व्यक्त नहीं करता यह बिल्कुल उसी तरह की इतिहास को जान कर क्या ही हो जाएगा?

एक तरह से देखा जाए तो भारतीय और पश्चिमी सिनेमा दोनों साथ-साथ ही शुरू हुए हैं। जब 1895 में लुमियर बंधु द्वारा पहली चलती फिरती फिल्म बनाई गई जो मात्र 45 सेकंड की थी। इसे पहली बार पेरिस में प्रदर्शित किया गया और वहां प्रदर्शित होने के मात्र 2 वर्ष बाद यह भारत में दिखाई गई। इस फिल्म के प्रदर्शित होने के लगभग 15 साल बाद जब 1910 में "द लाइफ ऑफ क्राइस्ट" प्रदर्शित की गई थी तो उसी वक्त घुंडीराज गोविंद फाल्के ने अपने मन में यह निश्चय कर लिया था कि वह भारत की धार्मिक और मिथकीय दोनों चरित्र को पर्दे पर प्रदर्शित कर जीवंत करेंगे।

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इसके बाद उन्होंने 2 महीने तक लगातार फिल्में देखी और यही सोचते रहे कि फिल्म कैसे बनाई जाए? इसका उनकी सेहत पर बहुत असर पड़ा और वह एक हद तक अंधे हो गए। हम जिस दौर की बात कर रहे है उस दौर में एक पत्रिका नवयुग (Navyug) आया करती थी जिसमें दादा साहेब ने "मेरी कहानी मेरी जुबानी" लिखी है उसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से साझा किया है कि उन पर फिल्म बनाने का जुनून इस तरह था कि वह किसी भी दिन 3 घंटे से ज्यादा नहीं सो पाते थे जिसके कारण वह अंधे होने लगे थे लेकिन डॉक्टरों ने उनका इलाज किया और उन्हें बहुत से चश्मे पहनने को दिए इनकी मदद से वह फिल्म बनाने लायक हो सके।

भारत की पहली फिल्म को बनाने के लिए दादासाहेब ने अपनी सरकारी नौकरी तक छोड़ दी वह पुरातत्व विभाग में फोटोग्राफर हुआ करते थे। ऐसा कहा जाता है कि गुजरात (Gujarat) के गोधरा शहर में दादा साहेब का अपना फोटो स्टूडियो था। लेकिन इस शहर को आज कोई भी उनके नाम से नहीं जानता।

आज के दौर में फिल्मों का बजट बहुत ज्यादा रहता है लेकिन दादासाहेब ने उस वक्त मात्र 20 से 50 हजार में फिल्म बनाकर तैयार कर दी थी। लेकिन इस रकम के लिए भी उन्हें अपने एक दोस्त से उधार लेना पड़ा था और साथ ही एक साहूकार के पास अपनी संपत्ति को गिरवी रखना पड़ा था।

<div class="paragraphs"><p>पहली भारतीय फिल्म राजा हरिश्चंद्र</p></div>

पहली भारतीय फिल्म राजा हरिश्चंद्र

Wikimedia

दादा साहेब ने पहली भारतीय फिल्म राजा हरिश्चंद्र (Raja Harishchandra) बनाकर दुनिया के सामने एक इतिहास रच दिया था। यह उस दौर की बात है जब महिलाएं काम नहीं करती थी और महिलाओं का किरदार भी पुरुषों के द्वारा ही निभाया जाता था। दादा साहेब के पूरे परिवार ने फिल्म बनाने में उनकी मदद की उनकी पत्नी ने भी कई बार अब से गहने गिरवी रखकर या बेचकर उनकी मदद की थी। जब वह श्रियाल फिल्म बना रहे थे तो उनके पास कलाकारों को देने के लिए वेतन नहीं था इसीलिए इसमें उनकी पत्नी और उनके बड़े बेटे ने भी भूमिका निभाई है।

सन 1937 में आई गंगावतरण उनकी पहली और अंतिम बोलती फिल्म रही।

इसके बाद जब 1938 में फिल्म इंडस्ट्री अपनी सिल्वर जुबली मना रही थी तो वहां दादासाहेब को भी बुलाया गया। लेकिन वहां उन्हें किसी ने नहीं पहचाना सिवाय वी शांताराम के और समारोह के आखिरी दिन वी शांताराम ने ही लोगों से आग्रह किया कि चंदा इकट्ठा किया जाए जिससे कि दादा साहेब को एक मकान नसीब हो सके लेकिन ज्यादा पैसा जमा नहीं हो सका। इसके बाद वी शांताराम ने ही अपनी फिल्म्स कंपनी प्रभात की ओर से बहुत सा पैसा मिलाया और दादा साहेब को नासिक (Nasik) के गोले कॉलोनी में एक छोटा सा बंगला बना कर दिया गया। हालांकि वह उस बंगले में ज्यादा समय तक नहीं रह पाएं। क्योंकि 1944 में एक गुमनाम व्यक्ति की तरह उनकी मृत्यु हो गई और तब तक फिल्मी दुनिया बहुत आगे बढ़ चुकी थी।

1970 यानी कि दादा साहेब के जन्म के शताब्दी वर्ष में भारत सरकार द्वारा दादा साहेब के नाम पर सिनेमा का सबसे बड़ा अवॉर्ड दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड देने की शुरुआत की गई।

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