हरिप्रसाद ने रच दिया इतिहास: बांसुरी के सुरों में छिपी पहलवान के बेटे की तक़दीर !

पंडित हरि प्रसाद चौरसिया ( Pandit Hari Prasad Chaurasia), जिनके पिता उन्हें अखाड़े का सितारा बनाना चाहते थे, लेकिन वो बांसुरी के सुरों में खो गए। पढ़ाई में कमजोर रहे, लेकिन संगीत में ऐसा रमे कि दुनिया भर में भारतीय बांसुरी को पहचान दिलाई। संघर्ष, समर्पण और सुरों से सजी एक प्रेरणादायक कहानी।
सच्चा कलाकार वह होता है जो अपनी कला से आत्मा को स्पर्श कर सके। और इस मामले में हरिप्रसाद चौरसिया से बड़ा उदाहरण शायद ही कोई हो। ( Image source: Wikimedia commons )
सच्चा कलाकार वह होता है जो अपनी कला से आत्मा को स्पर्श कर सके। और इस मामले में हरिप्रसाद चौरसिया से बड़ा उदाहरण शायद ही कोई हो। ( Image source: Wikimedia commons )
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भारत में जब भी बांसुरी की बात होती है, तो सबसे पहला नाम जो लोगों के दिल में उतरता है, वह नाम है पंडित हरि प्रसाद चौरसिया ( Pandit Hari Prasad Chaurasia),। एक ऐसे कलाकार जिन्होंने बांसुरी को सिर्फ़ एक बाजा नहीं, बल्कि आत्मा की आवाज़ बना दिया। लेकिन क्या आपको पता है कि इस महान बांसुरी वादक के पिता एक पहलवान थे, जो उन्हें कुश्ती में करियर बनाते देखना चाहते थे ?

यह कहानी है एक ऐसे इंसान की जिसने अपने अंदर के सुरों की पुकार को सुना है अपने जुनून के रास्ते पर बढ़ चला, बिना यह सोचे कि समाज क्या कहेगा। यह कहानी सिर्फ़ संगीत की नहीं, यह कहानी है संघर्ष, समर्पण और आत्मिक लगाव की।

पिता कि चाहत अखाड़े का सितारा , बेटे का संगीत प्रेम

उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में हरि प्रसाद चौरसिया ( Hari Prasad Chaurasia), का जन्म हुआ था l उनके पिता एक जाने-माने पहलवान थे। उन्हें उम्मीद थी कि उनका बेटा भी अखाड़े में उतरेगा और कुश्ती लड़ेगा। बचपन में वह अपने पिता के साथ दंगल देखने जाया करते थे, लेकिन उन्हें यह खेल कभी पसंद नहीं आया वह कहते हैं, "मुझे लगता था कि ये लड़ाई कैसी जिसमें एक आदमी दूसरे की गर्दन दबा रहा है और वो चिल्ला रहा है। मुझे ये सब कभी अच्छा नहीं लगा।" बचपन से ही उनका मन संगीत की ओर खिंचता था। स्कूल के दिनों में वह अक्सर त्योहारों या विशेष कार्यक्रमों में गीत गाया करते थे। उनके स्कूल के प्रिंसिपल केदारनाथ गुप्ता उन्हें गाने के लिए बुलाया करते थे और उनकी आवाज़ सुनकर बहुत खुश होते थे।

हरि प्रसाद चौरसिया (Hari Prasad Chaurasia), मानते हैं कि पढ़ाई में वे बहुत अच्छे नहीं थे। लेकिन संगीत की वजह से उन्हें स्कूल में पास कर दिया जाता था। उन्होंने मैट्रिक पास किया और उनको नौकरी भी मिल गई। हालांकि उनका मन नौकरी में नहीं लगता था। वह अकसर दफ्तर में नहीं मिलते थे, क्योंकि वे स्टूडियो में बांसुरी बजाने चले जाते थे। फिर एक दिन उन्होंने फैसला लिया कि संगीत ही मेरा धर्म है, और उन्होंने नौकरी छोड़ दी।

बांसुरी ही क्यों चुनी ?

हरि प्रसाद चौरसिया ( Hari Prasad Chaurasia), के पास तब न तो बढ़िया गला था और न ही इतने पैसे कि वे कोई महंगा यन्त्र खरीद सकें। बांसुरी सस्ती थी, सरल थी और आत्मा को छू जाने वाली थी इसलिए उन्होंने बांसुरी को चुना । वे कहते हैं, "भगवान श्रीकृष्ण के पास भी पैसे नहीं थे, तो उन्होंने बांस का टुकड़ा लिया और उसमें छेद कर बांसुरी बना ली।" बांसुरी उनके लिए केवल एक यन्त्र नहीं थी, वह एक साधना थी। वे बांसुरी को भगवान मानते हैं। उनका कहना है कि "बांसुरी को ट्यून करने की भी जरूरत नहीं पड़ती, न ही उसमें भारी-भरकम तार होते हैं। यह सीधा दिल से बजती है और दिल तक पहुंचती है," l

ऑल इंडिया रेडियो कटक में काम करने के बाद हरि प्रसाद चौरसिया (Hari Prasad Chaurasia), का बदली मुंबई कर दिया गया। वहां की महंगी ज़िंदगी और केवल 160 रुपये की तनख्वाह ने उन्हें जल्दी ही यह एहसास करा दिया कि यहां टिकना आसान नहीं है। लेकिन फिर एक दिन किस्मत ने करवट ली। एक दिन रेडियो स्टेशन पर म्यूज़िक डायरेक्टर मदन मोहन की रिकॉर्डिंग चल रही थी और बांसुरी वादक नहीं आए थे। उसके बाद ड्यूटी ऑफिसर ने हरिप्रसाद ( Hari Prasad ), को बुलाया। उन्होंने बांसुरी बजाना शुरू किया और सबका मन मोह लिया। मदन मोहन ने उनसे पूछा कि क्या वे फिल्मों में बांसुरी बजाना चाहेंगे ? उन्होंने कहा, ज़रूर। उसी दिन उन्हें फिल्म इंडस्ट्री में पहला मौका मिला, और फिर पीछे मुड़कर उन्होंने कभी नहीं देखा। बाद में हरि प्रसाद चौरसिया (Hari Prasad Chaurasia), ने मशहूर संतूर वादक पंडित शिवकुमार शर्मा के साथ मिलकर 'शिव-हरि' नामक जोड़ी बनाई। दोनों ने मिलकर ‘सिलसिला, चांदनी, लम्हे, और डर’ जैसी यादगार फिल्मों में संगीत दिया। इन सभी फिल्मों के संगीत को आज भी लोग सुनते हैं और उसमें बांसुरी की मिठास को महसूस करते हैं।

87 साल की उम्र में भी पंडित हरि प्रसाद चौरसिया, के भीतर वही ऊर्जा और वही लगन है, जो उन्होंने बचपन में महसूस की थी। (Image source: Wikimedia commons )
87 साल की उम्र में भी पंडित हरि प्रसाद चौरसिया, के भीतर वही ऊर्जा और वही लगन है, जो उन्होंने बचपन में महसूस की थी। (Image source: Wikimedia commons )

लता, रफ़ी और मुकेश का प्यार

हरिप्रसाद ( Hari Prasad ), बताते हैं कि लता मंगेशकर, मोहम्मद रफ़ी और मुकेश जैसे बड़े गायक भी उनके बांसुरी वादन के शिष्य थे। वे कहते हैं, "जब मैं रिकॉर्डिंग में नहीं होता था, तो मुझसे पूछा जाता था आप कहां थे ? क्यों नहीं आए ?" यह वह दौर था जब फिल्म इंडस्ट्री में हर कोई चाहता था कि हरि प्रसाद चौरसिया ही उनकी धुनों में बांसुरी बजाएं। मदन मोहन, ओ.पी. नैयर, शंकर-जयकिशन, रोशन साहब सभी उनके प्रशंसक बन गए।

विदेश यात्रा और लंदन की ऐतिहासिक शाम

हरि प्रसाद चौरसिया (Hari Prasad Chaurasia), की पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा थी लंदन का रॉयल अल्बर्ट हॉल में कार्यक्रम। यह उनके जीवन का बड़ा मोड़ था। उस समय उनके पास पासपोर्ट तक नहीं था, लेकिन हेमंत कुमार उन्हें अपने साथ ले गए। उस रात कार्यक्रम की पहली पंक्ति में बैठे थे 'बीटल्स' के जॉर्ज हैरिसन, टॉम स्कोल्ज़ और बिली प्रेस्टन जैसे अंतरराष्ट्रीय सितारे थे। वहाँ हरिप्रसाद ने बांसुरी से ऐसा जादू बिखेरा कि पूरी दुनिया उनकी दिवानी हो गई।

87 साल की उम्र में भी पंडित हरि प्रसाद चौरसिया ( Pandit Hari Prasad Chaurasia ),के भीतर वही ऊर्जा और वही लगन है, जो उन्होंने बचपन में महसूस की थी। वे आज भी बांसुरी के सुरों से आत्मा को छूने का प्रयास करते हैं। उन्होंने न केवल भारतीय शास्त्रीय संगीत को विश्व मंच पर पहचान दिलाई, बल्कि यह भी दिखा दिया कि अगर लगन हो, तो एक पहलवान का बेटा भी संगीत का सम्राट बन सकता है। हरिप्रसाद चौरसिया (Hari Prasad Chaurasia), की कहानी हमें यह सिखाती है कि जुनून के आगे कोई सामाजिक उम्मीद या पारिवारिक दबाव टिक नहीं सकता। उन्होंने बांसुरी को केवल बजाया नहीं, बल्कि जीया है। और यही कारण है कि आज वे बांसुरी की दुनिया में एक जीवित प्रवाद हैं।

उनकी यात्रा हमें यह याद दिलाती है कि सच्चा कलाकार वह होता है जो अपनी कला से आत्मा को स्पर्श कर सके। और इस मामले में हरिप्रसाद चौरसिया (Hari Prasad Chaurasia),से बड़ा उदाहरण शायद ही कोई हो।

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