विभाजन की यादें: कैसे सुनील दत्त अपने परिवार से फिर मिले

सुनील दत्त, जिनका असली नाम बलराज दत्त था, का जन्म 6 जून 1929 को नक्का खुर्द, पंजाब प्रांत (आज का पाकिस्तान) में हुआ था। साधारण परिवार से आने वाले सुनील दत्त के पास फिल्म जगत से कोई संबंध नहीं था, लेकिन अपनी मेहनत, लगन और करिश्मे से वे भारतीय सिनेमा के सबसे सम्मानित और लोकप्रिय अभिनेताओं में शामिल हो गए। उनकी फिल्मों में सामाजिक संदेश होते थे और वे अपने अनोखे अंदाज़ से दर्शकों को प्रभावित करते थे।
सुनील दत्त, जिनका असली नाम बलराज दत्त था, का जन्म 6 जून 1929 को नक्का खुर्द, पंजाब प्रांत (आज का पाकिस्तान) में हुआ था
सुनील दत्त, जिनका असली नाम बलराज दत्त था, का जन्म 6 जून 1929 को नक्का खुर्द, पंजाब प्रांत (आज का पाकिस्तान) में हुआ थाWikimedia Commons
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संघर्ष और करियर की शुरुआत

दत्त का शुरुआती जीवन आसान नहीं था। मुंबई (Mumbai) के जय हिंद कॉलेज (Jai Hind College) में पढ़ाई करते समय उन्हें आर्थिक दिक्कतें झेलनी पड़ीं। अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए उन्होंने काम भी किया। उनको पहला बड़ा मौका रेडियो जॉकी बनने के रूप में मिला, जिसने फिल्म उद्योग के दरवाजे उनके लिए खोल दिए।

1955 में उन्होंने रेलवे प्लेटफार्म (Railway Platform) फिल्म से अभिनय की शुरुआत की। 1956 में एक ही रास्ता (Ek Hi Raasta) से उन्हें सफलता मिली और 1957 की मदर इंडिया (Mother India) ने उन्हें भारतीय सिनेमा (Indian Cinema) का बड़ा सितारा बना दिया। इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान उनकी मुलाकात अभिनेत्री नर्गिस (Nargis) से हुई, जिनसे उन्होंने 1958 में विवाह किया। उनके तीन बच्चे हुए, संजय दत्त (Sanjay Dutt), नम्रता दत्त (Narmata Dutt) और प्रिया दत्त (Priya Dutt)।

विभाजन का दर्द और पूर्ण मिलन

लेकिन उनकी सफलता के पीछे एक तकलीफ़दे कहानी भी थी। 1947 के विभाजन (Partition) के दौरान वे अपनी माँ, छोटे भाई और बहन से बिछड़ गए थे। लगातार अलग-अलग जगहों पर जाते हुए वे अपने परिवार को खोजते रहे, लेकिन उन्हें डर था कि शायद वे भी उस त्रासदी का शिकार हो चुके हैं जिसमें लाखों लोगों की जान गई थी।

बाद में, एक दिन अंबाला (Ambala) में, जब वे सड़क से गुजर रहे थे, तो अचानक किसी ने उन्हें “बलराज!” (Balraj) कहकर पुकारा। हैरान होकर उन्होंने देखा कि वह उनका एक रिश्तेदार था। उसने उन्हें अपने साथ लिया और अंबाला के एसपी (अपने चाचा) के बंगले पर ले गया।

जैसे ही दत्त ने टांगा से उतरकर चारों ओर देखा, उनकी आँखें भर आईं। सामने उनकी माँ खड़ी थीं, मैले और फटे कपड़ों में। उनके छोटे भाई ने शॉर्ट्स पहन रखी थी और बहन भी वहीं थी। इस पल को उन्होंने अपनी जिंदगी का सबसे खुशहाल दिन कहा, क्योंकि वे मान चुके थे कि शायद उन्हें हमेशा के लिए खो चुके हैं।

सुनील दत्त की यात्रा यह साबित करती है कि कठिनाइयाँ ही महानता गढ़ती हैं।
सुनील दत्त की यात्रा यह साबित करती है कि कठिनाइयाँ ही महानता गढ़ती हैं।Wikimedia Commons

राजनीति और समाज सेवा

सुनील दत्त (Sunil Dutt) ने न सिर्फ फिल्मों से, बल्कि राजनीति और समाजसेवा से भी गहरी छाप छोड़ी। वे सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहे और राजनीति में भी उतरे। उनकी सेवाओं के लिए उन्हें 1968 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया और 1995 में फिल्मफेयर लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड दिया गया। 

उनकी जीवनगाथा हमें याद दिलाती है कि सफलता के पीछे अक्सर अनकहे संघर्ष, धैर्य और दृढ़ निश्चय छिपा होता है। सुनील दत्त की यात्रा यह साबित करती है कि कठिनाइयाँ ही महानता गढ़ती हैं।

(Rh/Eth/BA)

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