
परिवार और शुरुआती जीवन
नादिरा बब्बर (nadira babbar) का जन्म एक प्रगतिशील और साहित्यिक परिवार में हुआ। उनके पिता सज्जाद ज़हीर प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक थे और मां रज़िया सज्जाद ज़हीर एक लेखिका और उर्दू की शिक्षिका थीं। वे चार बहनों में तीसरे नंबर पर हैं। उनके दादा सर वसीर हसन ब्रिटिश भारत के चीफ़ जस्टिस थे और अंग्रेज़ों ने उन्हें 'सर' की उपाधि दी थी, वहीं उनकी दादी को 'लेडी' का खिताब मिला था। इस पृष्ठभूमि ने नादिरा के भीतर एक अलग ही सोच और समझ का बीज बो दिया था। नादिरा कहती हैं कि उनके पिता पाकिस्तान चले गए थे और फिर वहीं गिरफ़्तार हो गए थे। इसलिए उनके पालन-पोषण में उनका कोई योगदान नहीं था। मां ने ही अकेले बच्चों को पाला, पढ़ाया और ज़िंदगी के सही मायने सिखाए।
शिक्षा और थिएटर की शुरुआत
नादिरा ने लखनऊ से स्नातक (बीए) किया और फिर उनका परिवार दिल्ली चला आया। यहीं उन्होंने भारत के प्रतिष्ठित नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा (NSD) में दाख़िला लिया और उनके अभिनय व लेखन का सफ़र शुरू हुआ। NSD में उन्हें प्रसिद्ध थिएटर निर्देशक इब्राहिम अल्काज़ी के मार्गदर्शन में प्रशिक्षण मिला। एक अमेरिकी थिएटर निर्देशक कार्ल बीबर के निर्देशन में हो रहे नाटक में नादिरा को एक छोटा रोल मिला था। लेकिन एक अभिनेत्री की अनुशासनहीनता के कारण उन्हें अचानक लीड रोल दे दिया गया। यहीं से उनके अभिनय का असली सफ़र शुरू हुआ। नादिरा बताती हैं, "शुरुआत में मुझे अभिनय पसंद नहीं था, लेकिन धीरे-धीरे मैं उसमें रमती चली गई।" तीन साल के NSD प्रशिक्षण के दौरान नादिरा ने मंच पर कई प्रमुख भूमिकाएं निभाईं। उनके अभिनय की प्रशंसा इतनी हुई कि थोड़ी घमंड की झलक भी उनके व्यवहार में आ गई थी, जिसे इब्राहिम अल्काज़ी ने डांटकर सुधारा। NSD की पढ़ाई पूरी करने के बाद नादिरा ने वहीं एक साल तक नौकरी की, और फिर एक स्कॉलरशिप पर जर्मनी चली गईं। लेकिन इस दौरान उनके पिता का निधन हो गया, जो उनके जीवन में एक भावनात्मक मोड़ था।
राज बब्बर से मुलाकात और जीवन का नया अध्याय
नादिरा की मुलाकात अभिनेता राज बब्बर से NSD में ही हुई थी। वे कहती हैं, "राज जब NSD में आए, तब मैं वहां से निकल रही थी। वो मुझसे तीन साल जूनियर थे।" दोनों की मुलाकातें धीरे-धीरे दोस्ती और फिर रिश्ते में बदल गईं। बाद में दोनों ने शादी की और उनके दो बच्चे हुए।1980 के बाद नादिरा मुंबई आ गईं, जहां राज पहले से अभिनय कर रहे थे। मुंबई आकर उन्होंने अपने थिएटर के सपने को एक नई दिशा दी। दिल्ली में रहते हुए ही नादिरा ने अपना थिएटर ग्रुप "एकजुट" शुरू किया। शुरुआत में 20-25 लोगों का यह समूह था, लेकिन आज 45 साल पूरा हो चुका है। एकजुट का मकसद सिर्फ़ अभिनय करना नहीं, बल्कि समाज के लिए कुछ सार्थक और संवेदनशील प्रस्तुत करना रहा है। नादिरा का मानना है, "थिएटर का मकसद समाज में मोहब्बत, समझदारी और ज़िम्मेदारी को बढ़ाना होना चाहिए।"
प्रमुख नाटक और लेखन का दृष्टिकोण
नादिरा ने कई ऐसे नाटक लिखे और प्रस्तुत किए जिनका उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक मुद्दों को सामने लाना रहा।उनका पहला चर्चित नाटक 'दया शंकर की डायरी' एक आम आदमी की मुंबई जैसे महानगर में जीवन की जद्दोजहद को बयां करता है। यह नाटक दर्शकों के दिलों को छू गया।एक और उल्लेखनीय नाटक था 'पेंसिल से ब्रश तक', जो प्रसिद्ध चित्रकार एम.एफ. हुसैन के जीवन पर आधारित था।नादिरा कहती हैं, "मेरे नाटक सिर्फ हंसी के लिए नहीं होते, उनमें एक गहराई, उद्देश्य और सोच होती है।"
थिएटर के प्रति उनका समर्पण
नादिरा बब्बर (nadira babbar) थिएटर को केवल पेशा नहीं, बल्कि "ज़िंदगी" मानती हैं। उनका कहना है, "थिएटर मेरी ज़िंदगी है। कोई अपनी ज़िंदगी को कैसे छोड़ सकता है ? ये तो मैं कभी सोच भी नहीं सकती कि थक जाऊं और थिएटर छोड़ दूं।" वह मानती हैं कि थिएटर में टिके रहना आसान नहीं है। इसमें न आर्थिक स्थिरता होती है, न अधिक पहचान, लेकिन सच्ची संतुष्टि और आत्मा की आवाज़ इसी में है।
नादिरा का जीवन सिर्फ़ थिएटर और लेखन तक सीमित नहीं है। उन्हें अपने खाली समय में सब्ज़ी ख़रीदना, आम लोगों से मिलना, उनकी बातें सुनना बहुत पसंद है। वो कहती हैं, "मुझे सब्ज़ी बाज़ार में जाना अच्छा लगता है। अलग-अलग सब्ज़ियों को देखना और सब्ज़ीवालों की बातों में जो ह्यूमर होता है, वो मुझे बहुत भाता है।"
नादिरा का जीवन उस पीढ़ी की कहानी है, जहां एक औरत ने लेखन, अभिनय और निर्देशन में अपनी अलग पहचान बनाई, वो भी उस दौर में जब थिएटर पुरुषों का क्षेत्र माना जाता था। उनकी मां ने जिस तरह से अकेले बच्चों को पाला, वही नारी-सशक्तिकरण की असल मिसाल है, और नादिरा ने उसी राह पर चलते हुए कला को सामाजिक बदलाव का माध्यम बनाया।
निष्कर्ष
नादिरा बब्बर (nadira babbar)का जीवन एक प्रेरणादायक कथा है। वह बताती हैं कि एक कलाकार केवल मंच पर नहीं, बल्कि जीवन के हर कोने में सक्रिय होता है I जैसे समाज में, रिश्तों में, बाजार में और अपने शब्दों में। उन्होंने अभिनय को जुनून, लेखन को ज़िम्मेदारी और थिएटर को ज़िंदगी का रूप दिया है।
उनकी कहानी एक संदेश देती है, अगर इरादे पक्के हों, तो कला को केवल ज़िंदा नहीं रखा जा सकता, बल्कि उसे समाज का आईना भी बनाया जा सकता है।
नादिरा बब्बर (nadira babbar) कहती हैं "थिएटर मेरी आत्मा है, मेरी आवाज़ है, और मेरा मिशन भी। इससे जुदा होना मेरे लिए खुद से जुदा होने जैसा होगा।"