
श्रेकिन्ग क्या है?
श्रेकिन्ग (Shrekking) का मतलब है ऐसे इंसान को चुनना जिसे आप अपने स्तर से नीचे समझते हों, जैसे दिखने में, आत्मविश्वास में या सामाजिक स्तर पर। उम्मीद यह रहती है कि ऐसा साथी ज़्यादा सम्मान देगा और रिश्ता निभाएगा। इसका नाम कार्टून फिल्म श्रेक (Shrek) के ओगर (Ogre) से लिया गया है, जहाँ कहानी में परियों की दुनिया जैसी चीज़ें होती हैं। लेकिन असल ज़िंदगी में यह तरीका अक्सर काम नहीं करता, क्योंकि सच्चा सम्मान और भरोसा सिर्फ दिखावे से नहीं आता, बल्कि आते हैं इंसान की सोच, सीमाएँ, समझदारी और उसके व्यवहार से।
आधुनिक डेटिंग की थकान और श्रेकिन्ग
आजकल डेटिंग ऐप्स (Dating) पर इतने विकल्प हैं कि हर स्वाइप एक छोटे-से इनकार जैसा लगता है। लोग बार-बार घोस्टिंग (Ghosting) और ब्रेडक्रंबिंग (Breadcrumbing) जैसी चीज़ों से परेशान हो जाते हैं। इस लगातार निराशा से बचने के लिए बहुत से लोग आसान रास्ता ढूँढ़ते हैं और सोचते हैं कि अगर “सेफ” इंसान चुन लिया तो दिल टूटने (Heartbreak) का डर कम होगा। यही सोच श्रेकिन्ग (Shrekking) को जन्म देती है। लेकिन डर के आधार पर लिया गया यह फैसला लंबे समय तक स्वस्थ नहीं रह सकता, क्योंकि शुरुआत से ही रिश्ता गलत सोच पर टिका होता है।
सुंदरता बनाम चरित्र: पुरानी बहस, नई भूल
समाज अक्सर सुंदरता को अच्छे स्वभाव से जोड़ देता है। श्रेकिन्ग इस सोच का उल्टा रूप है, कम आकर्षक साथी ज़्यादा अच्छा होगा। लेकिन यह दोनों ही सोच गलत हैं। वफादारी (Loyalty), सहानुभूति और ज़िम्मेदारी (Responsibility) इंसान के चरित्र से आती है, चेहरे से नहीं। जब रिश्ता इस गलत आधार पर शुरू होता है तो धीरे-धीरे खटास आनी शुरू हो जाती है। अक्सर ऐसा लगता है कि, “मैंने तुम्हें मौका दिया, अब तुम मेरी बात क्यों नहीं मानते?” यही हक़दारी रिश्ते को खोखला कर देती है।
टॉक्सिक डेटिंग ट्रेंड्स में श्रेकिन्ग
आजकल डेटिंग में कई ट्रेंड हैं, घोस्टिंग (Ghosting) यानी बिना बताए ग़ायब हो जाना, ब्रेडक्रंबिंग (Breadcrumbing) यानी थोड़ा-थोड़ा ध्यान देना, बेंचिंग (Benching) यानी किसी को बैकअप बनाकर रखना, या लव-बॉम्बिंग यानी शुरुआत (Love Bombing) में बहुत ज़्यादा प्यार जताना। इन सबका मकसद साफ़ है, रिश्ते की गहराई से बचना और भावनाओं के जोखिम से दूर रहना। श्रेकिन्ग भी इन्हीं में से एक है। यहाँ लोग जोखिम से बचने के लिए “नीचे के स्तर” का साथी चुनते हैं, लेकिन असली मेहनत, ईमानदारी, संवेदनशीलता और मुश्किल बातों पर बातचीत, फिर भी नहीं करते। इसी वजह से श्रेकिन्ग ज़्यादातर समय टिक नहीं पाता।
जेन-ज़ि का मज़ाक और असलियत का फर्क
सोशल मीडिया पर श्रेकिन्ग पर मिम्ज़ (memes) और रील्स (reels) मज़ेदार लगते हैं। लोग कहते हैं, “मैं अपने श्रेक से डेट कर रहा हूँ।” हँसी-मज़ाक तनाव हल्का कर देता है, लेकिन जब यही मज़ाक आपकी असली ज़िंदगी का तरीका बन जाता है, तो रिश्ते में तुलना और दबाव पैदा होता है। वहाँ बराबरी नहीं रहती, बल्कि एहसान और बोझ रह जाता है। ऑनलाइन मज़ाक अगर रोज़मर्रा का व्यवहार बन जाए तो चोट असली होती है।
समझौते की मनोविज्ञान और श्रेकिन्ग
श्रेकिन्ग (Shrekking) के पीछे अक्सर तीन कारण होते हैं। पहला है इंकार का डर। पुराने रिश्ते टूटने के बाद लोग ऐसा साथी चुनते हैं जिससे उन्हें लगता है कि वह कभी छोड़कर नहीं जाएगा। लेकिन यह डर धीरे-धीरे नियंत्रण में बदल जाता है, और नियंत्रण प्यार का दुश्मन है। दूसरा कारण है कमी की सोच। लोग मान लेते हैं कि अच्छे साथी बहुत कम हैं, इसलिए जो भी मिला वही सही है। इस सोच से सीमाएँ धुंधली हो जाती हैं। तीसरा कारण है नियंत्रण का भ्रम। लोग सोचते हैं कि अगर वे ऊपर रहेंगे तो रिश्ता स्थिर रहेगा। लेकिन हक़ीक़त यह है कि शक्ति का असंतुलन सम्मान को खत्म कर देता है। स्थिरता हमेशा बराबरी से आती है, ऊँच-नीच से नहीं।
सबसे अहम: आजकल लोग कमिटमेंट से क्यों भागते हैं?
आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि लोग श्रेकिन्ग जैसे ट्रेंड क्यों अपनाते हैं लेकिन पक्के रिश्तों से बचते हैं। इसके पीछे कई वजहें हैं। डेटिंग ऐप्स पर अनगिनत विकल्प हैं। हमेशा लगता है कि अगला इंसान और अच्छा होगा। यह शक कमिटमेंट को खत्म कर देता है।
दूसरी वजह है कि ऐप्स खुद ही ऐसे बनाए गए हैं कि लोग बार-बार वापिस आएँ। नई चैट और नए लाइक से मिलने वाला मज़ा गहरी नज़दीकी की आदत को कमजोर कर देता है।
तीसरी वजह है असुरक्षा, नौकरी, घर और करियर की दौड़ में लोग सोचते हैं कि पहले ज़िंदगी सँभाल लें, फिर रिश्ता करेंगे।
चौथी वजह है पुराने घाव। जब पहले चोट लगी हो तो लोग लेबल और सीमा दोनों से बचते हैं और सतही रिश्तों में ही फँसे रहते हैं।
पाँचवीं वजह है दिखावे का दबाव। अब रिश्ते भी सोशल मीडिया पर कंटेंट बन गए हैं। लोग निभाने से ज़्यादा दिखाने में लगते हैं।
छठा कारण है आज़ादी खोने का डर। बहुत से लोग मानते हैं कि कमिटमेंट का मतलब खुद को खो देना है। जबकि असली कमिटमेंट में भी अपनी पहचान बनी रहती है।
सातवाँ कारण है झगड़े सुलझाने की कला की कमी। पैसे, परिवार या भविष्य जैसे सवाल जल्दी लोगों को परेशान कर देते हैं, और बिना स्किल के लोग हल्के रिश्ते चुनते हैं।
आठवाँ कारण है भारतीय समाज का दबाव, जहाँ जल्दी शादी भी करनी है और बिल्कुल सही साथी भी ढूँढ़ना है। ये उलझन रिश्ते को और मुश्किल बना देती है।
निष्कर्ष
श्रेकिन्ग (Shrekking) सुनने में मज़ेदार लगता है, लेकिन यह डर और थकान से निकला हुआ तरीका है। सच्चा प्यार दिखावे या ऊँच-नीच से नहीं बनता। वह बनता है भरोसे, सम्मान, ज़िम्मेदारी और साझा लक्ष्यों से। “सेफ” चुनना बुरा नहीं है, लेकिन “सूटेबल” का मतलब बराबरी और बढ़त है। फिल्मों में श्रेक और फियोना हमेशा साथ रहते हैं, लेकिन असली ज़िंदगी में श्रेकिन्ग आपको सुरक्षित नहीं, बल्कि फँसा हुआ छोड़ सकता है। इसलिए भागने की बजाय रिश्ते निभाने की कला सीखना ही आज की असली ज़रूरत है। (Rh/Eth/BA)