"बिहार कोकिला" शारदा सिन्हा की अद्भुत यात्रा

शारदा सिन्हा (Sharda Sinha) सिर्फ एक गायिका (Singer) नहीं, छठ पर्व की आत्मा थीं। पटना आकाशवाणी से शुरू हुई उनकी यात्रा ने लोकगीतों को जन-जन तक पहुँचाया। संघर्ष, शिक्षा, और पारिवारिक समर्थन से उन्होंने ‘बिहार (Bihar) कोकिला’ की पहचान पाई,आइए जानते हैं शारदा सिन्हा की अनसुनी कहानी।
शारदा सिन्हा न केवल गायिका थीं, बल्कि उन्होंने संगीत में पीएचडी भी की थी और समस्तीपुर के महिला कॉलेज में प्रोफेसर भी रहीं। [Wikimedia commons ]
शारदा सिन्हा न केवल गायिका थीं, बल्कि उन्होंने संगीत में पीएचडी भी की थी और समस्तीपुर के महिला कॉलेज में प्रोफेसर भी रहीं। [Wikimedia commons ]
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छठ पूजा की जब भी बात होती है तो सबसे पहले शारदा सिन्हा (Sharda Sinha) का ही नाम लिया जाता है। उनकी मधुर आवाज़ जैसे छठ पर्व की आत्मा बन चुकी है। उनके गाए गीतों के बिना छठ पूजा अधूरी लगती है। 'केलवा के पात पर उगेलन सूरज मल झांके झूंके...' जैसे गीत अब लोकजीवन का हिस्सा बन गए हैं। लेकिन शारदा सिन्हा सिर्फ एक गायिका (Singer) नहीं थीं, वो लोक संस्कृति की सच्ची साधिका भी थीं, जिन्होंने अपनी आवाज़ से बिहार (Bihar) को एक नई पहचान दी।

कैसे एक साधारण लड़की बनीं 'बिहार कोकिला'

शारदा सिन्हा (Sharda Sinha) का संगीत-सफर पटना के आकाशवाणी केंद्र से शुरू हुआ। 1973 में उन्होंने आकाशवाणी के ऑडिशन में भाग लिया। उस समय वो गीत, ग़ज़ल और भजन गाती थीं। पहले प्रयास में वो चयनित नहीं हो सकीं। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। छह महीने बाद जब दोबारा ऑडिशन हुआ, तो उन्होंने पूरी तैयारी से हिस्सा लिया और इस बार वो चुनी गईं। आकाशवाणी से ही उन्हें पहली बार पहचान मिली। उनके जीवन का एक यादगार मोड़ तब आया जब लोकगीतों के लिए लखनऊ में अस्थायी स्टूडियो में ऑडिशन रखा गया। उसके बाद शारदा जी लखनऊ पहुंचीं, लेकिन जल्दबाज़ी में ऑडिशन हो गया और उन्हें रिजेक्ट कर दिया गया। निराश होकर उन्होंने कहा, “अब मैं गला बिगाड़ दूंगी।” उन्होंने दुखी होकर कुल्फी खा ली, लेकिन उनके पति बृजकिशोर सिन्हा ने हिम्मत नहीं हारी और वहाँ के अधिकारियों से दोबारा ऑडिशन की गुज़ारिश की।

दूसरे दिन जब उन्होंने लोकगीत “द्वार के छेकाई...” गाया, तो पर्दे के पीछे से एक आवाज़ आई “और कुछ गाओ।” यह आवाज़ किसी और की नहीं, बल्कि प्रसिद्ध गायिका (Singer) बेग़म अख्तर की थी। उन्होंने शारदा जी को आशीर्वाद दिया और इस तरह उनका पहला रिकॉर्ड ‘द्वार के छेकाई’ 1975 में आया। शारदा सिन्हा (Sharda Sinha) को मुकेश के गीत बेहद पसंद थे। एक बार जब वो एक रेडियो बातचीत के लिए गईं और उनकी तबीयत ठीक नहीं थी, तो उनसे कहा गया कि वो आराम कर लें। लेकिन उन्होंने बड़ी सहजता से सोफे पर लेटकर बातचीत जारी रखी। उस दिन उन्होंने अपने पसंदीदा मुकेश के गीत गाए वो भी बिना किसी किताब के, उन्होनें इस गीत को दिल से गाया, यह उनके सादगी और संगीत-प्रेम का सुंदर उदाहरण था।

शारदा सिन्हा को भारत सरकार ने पद्मभूषण से सम्मानित किया। लेकिन वे सच्चे अर्थों में जनता की गायिका थीं। उन्हें जितना प्यार पुरस्कारों से मिला, उससे कहीं ज़्यादा लोगों की भावनाओं से मिला। [Wikimedia Commons ]
शारदा सिन्हा को भारत सरकार ने पद्मभूषण से सम्मानित किया। लेकिन वे सच्चे अर्थों में जनता की गायिका थीं। उन्हें जितना प्यार पुरस्कारों से मिला, उससे कहीं ज़्यादा लोगों की भावनाओं से मिला। [Wikimedia Commons ]

लोकगीतों से बॉलीवुड तक का सफर

शारदा सिन्हा (Sharda Sinha) का लोकगीतों में योगदान तो प्रसिद्ध है ही, लेकिन उन्होंने बॉलीवुड में भी अपनी पहचान बनाई। फिल्म ‘मैंने प्यार किया’ का गीत ‘कहे तोसे सजना’ उनके करियर का मील का पत्थर बन गया। यह गाना असद भोपाली ने लिखा था और राम-लक्ष्मण ने संगीत दिया था। यह गाना इतना लोकप्रिय हुआ कि शारदा सिन्हा (Sharda Sinha) को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान दिलाई। बाद में उन्होंने ‘हम आपके हैं कौन’, फिल्म में विदाई गीत ‘बाबुल जो तुमने सिखाया’ और अनुराग कश्यप की फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में ‘इलेक्ट्रिक पिया’ जैसे गीत भी गाए। इन गीतों में उनकी आवाज़ ने लोगों के भावनाओं को गहराई से छू लिया।

शारदा सिन्हा (Sharda Sinha) न केवल गायिका (Singer) थीं, बल्कि उन्होंने संगीत में पीएचडी भी की थी और समस्तीपुर के महिला कॉलेज (Women's College) में प्रोफेसर भी रहीं। मणिपुरी नृत्य में भी उन्होंने पारंगतता हासिल की थी, लेकिन विवाह के बाद समाज की आलोचना के कारण उन्होंने नृत्य छोड़ दिया। उनकी सफलता में उनके पिता सुखदेव ठाकुर और पति बृजकिशोर सिन्हा का बड़ा हाथ रहा, उनके पति ने हर कदम पर उनका साथ दिया और प्रोत्साहित किया। उन्होंने खुद कहा था, की “मेरे पति ने मेरा हाथ थामा और मुझे सिखाया कि संगीत की दुनिया में डटे रहना क्या होता है।”

छठ को घर-घर पहुंचाया

शारदा सिन्हा (Sharda Sinha) के गाए छठ गीत अब हर घर की परंपरा बन चुकी है। चाहे वह ‘पटना के घाट पर हमहू अरघिया देबई’ हो या ‘पहिले-पहिल हम कइलीं छठी मैया बरत तोहार’ इन गीतों ने छठ पूजा की आत्मा को जीवित कर दिया। उन्होंने कहा था, “मैंने कभी लोकप्रियता के लिए नहीं गाया, मैं बस एक माध्यम बनी और अपने समाज के प्रति जवाबदेही महसूस की।”

शारदा सिन्हा (Sharda Sinha) जब भी मिलतीं, माथे पर बड़ी गोल लाल बिंदी और चमकदार साड़ी में दिखती थीं। उनकी सबसे खास बात यह थी कि उन्होंने कभी भी अपनी नौकरी नहीं छोड़ी, चाहे कितनी भी शोहरत मिली हो वो हमेशा अपनी संस्कृति और समाज के साथ खड़ी रहीं। शारदा सिन्हा (Sharda Sinha) को भारत सरकार ने पद्मभूषण से सम्मानित किया, लेकिन वे सच्चे अर्थों में जनता की गायिका (Singer) थीं, उन्हें जितना प्यार पुरस्कारों से मिला, उससे कहीं ज़्यादा लोगों की भावनाओं से मिला।

शारदा सिन्हा ने अपने संगीत से बिहार  मिथिला, भोजपुरी और भारतीय संस्कृति को एक नई ऊंचाई दी। [ Wikimedia Commons ]
शारदा सिन्हा ने अपने संगीत से बिहार मिथिला, भोजपुरी और भारतीय संस्कृति को एक नई ऊंचाई दी। [ Wikimedia Commons ]

शारदा सिन्हा के जीवन का अंतिम सफर

कोरोना काल में जब उन्हें संक्रमण हुआ, तो अफवाहें फेलने लगी कि सारदा सिन्हा की तबीयत काफी गंभीर है, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी, धीरे-धीरे स्वस्थ हुईं और फिर संगीत की दुनिया में लौटीं। हलांकी अब वो नहीं रहीं इस दुनियां में, तो उनकी यादें, मुस्कान और गीत हमेशा के लिए हमारे दिलों में बस गए हैं।

शारदा सिन्हा (Sharda Sinha) ने अपने संगीत से बिहार (Bihar), मिथिला, भोजपुरी और भारतीय संस्कृति को एक नई ऊंचाई दी। उनका जीवन इस बात की मिसाल है कि अगर सपनों के साथ मेहनत और आत्मा जुड़ी हो, तो कोई भी महिला ‘कोकिला’ बन सकती है। आज भले ही वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी आवाज़ जब-जब गूंजेगी, हमारी आंखें नम हो जाएंगी और दिल हमेशा बोलेगा शारदा सिन्हा (Sharda Sinha) आपका संगीत अमर रहेगा।

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