गुरु दत्त : सिनेमा का शायर, दिल का अकेला मुसाफिर

गुरु दत्त (Guru Dutt) की ज़िंदगी सिनेमा से अलग एक गहरी भावनात्मक लड़ाई थी। 'प्यासा' ('Pyaasa'), और 'कागज़ के फूल' ('Kagaz Ke Phool') जैसे क्लासिक्स बनाने वाले इस महान कलाकार ने सफलता की ऊंचाइयों पर भी अकेलेपन और मानसिक संघर्ष का सामना किया, जो अंततः उनके असमय अंत का कारण बन गया।
गुरु दत्त का नाम, आज भी भारतीय सिनेमा के सुनहरे दौर का प्रतीक माना जाता है।लेकिन कैमरे की रौशनी में चमकता यह चेहरा अंदर से बेहद टूट चुका था।   ( Sora AI )
गुरु दत्त का नाम, आज भी भारतीय सिनेमा के सुनहरे दौर का प्रतीक माना जाता है।लेकिन कैमरे की रौशनी में चमकता यह चेहरा अंदर से बेहद टूट चुका था। ( Sora AI )
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गुरु दत्त (Guru Dutt) का नाम, आज भी भारतीय सिनेमा के सुनहरे दौर का प्रतीक माना जाता है। ‘प्यासा’ ('Pyaasa'), ‘कागज़ के फूल’ ('Kagaz Ke Phool'), ‘साहब बीवी और गुलाम’ जैसी अमर फिल्मों के निर्माता, निर्देशक और अभिनेता रहे गुरु दत्त ने अपने केवल 39 वर्षों के जीवन में सिनेमा को एक नई दिशा दी। लेकिन कैमरे की रौशनी में चमकता यह चेहरा अंदर से बेहद टूट चुका था। वह कहते थे, "मुझे लगता है, मैं पागल हो जाऊंगा।"

"सामान्य शुरुआत, लेकिन गहरा जुनून"

गुरु दत्त (Guru Dutt) का जन्म 9 जुलाई 1925 को कर्नाटक में हुआ। उनका बचपन आर्थिक तंगी और पारिवारिक अस्थिरता में बीता। काम की तलाश में उनका परिवार बंगाल चला गया, जहाँ उन्होंने बंगाली संस्कृति को करीब से महसूस किया। बाद में इसी संस्कृति का असर उनकी फिल्मों में दिखाई दिया बेहद गहराई, संवेदनशीलता और अकेलेपन का चित्रण। उन्होंने फिल्मी दुनिया में अपने कदम एक कोरियोग्राफर के रूप में रखा था। उन्होंने घर चलाने के लिए टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी भी की। लेकिन उनके भीतर एक कलाकार पल रहा था जो कहानियों को जीना चाहता था, उन्हें पर्दे पर साकार करना चाहता था।

देव आनंद से दोस्ती ने गुरु दत्त (Guru Dutt) को पहला बड़ा मौका दिया। 1951 में आई फिल्म बाज़ी ने उन्हें निर्देशक के रूप में पहचान दिलाई। इसके बाद ‘आर-पार’, ‘मिस्टर एंड मिसेज़ 55’ जैसी हिट फिल्में आईं, जिनमें वो खुद नायक भी बने। ये फिल्में हल्की-फुल्की थी, लेकिन गुरु दत्त का दिल गहरी और जटिल कहानियों में था।

गुरु दत्त (Guru Dutt) का सबसे प्रिय प्रोजेक्ट था प्यासा (Pyaasa)। एक ऐसे कवि की कहानी, जो भौतिकता से भरे समाज में अपने मूल्य खो बैठता है। इस फिल्म में उनका अपना दर्द झलकता है। शूटिंग के दौरान वो बार-बार सीन दोहराते थे , डायलॉग बदलते थे और कैमरा ऐंगल्स पर घंटों सोचते थे।

उनकी बहन ललिता लाजमी के अनुसार, उन्होंने फिल्म का क्लाइमेक्स 104 बार शूट किया। वो रातों को सो नहीं पाते थे, वो शराब और नींद की गोलियों का सहारा लेने लगे थे। एक बार तो उन्होंने आत्महत्या का प्रयास भी किया। लेकिन तब भी परिवार ने मानसिक स्वास्थ्य को गंभीरता से नहीं लिया। ‘प्यासा’ 1957 में रिलीज हुई और क्लासिक बन गई, लेकिन उनके भीतर की बेचैनी कम नहीं हुई।

देव आनंद से दोस्ती ने गुरु दत्त को पहला बड़ा मौका दिया। 1951 में आई फिल्म बाज़ी ने उन्हें निर्देशक पहचान दिलाई।(Wikimedia commons)
देव आनंद से दोस्ती ने गुरु दत्त को पहला बड़ा मौका दिया। 1951 में आई फिल्म बाज़ी ने उन्हें निर्देशक पहचान दिलाई।(Wikimedia commons)

‘कागज़ के फूल’: टूटे सपनों की गूंज

‘प्यासा’ (Pyaasa) की सफलता के बाद गुरु दत्त ने बनाई कागज़ के फूल ('Kagaz Ke Phool'), एक निर्देशक की दुखद घटना,, जो प्रेरणा और प्रेम की तलाश में खुद को खो देता है। फिल्म में जो कहानी थी, वह गुरु दत्त (Guru Dutt) के निजी जीवन की परछाईं थी। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह फ्लॉप हुई और यह झटका उनके लिए बहुत बड़ा साबित हुआ। उनके करीबी लोगों के अनुसार, इस असफलता के बाद वह बुरी तरह टूट गए। उन्होंने कभी दोबारा कोई फिल्म निर्देशित नहीं की। इस दौरान उनका वैवाहिक जीवन भी बिखरने लगा और निजी तनाव और बढ़ता गया।

इसके बाद उन्होंने एक बार फिर प्रोड्यूसर के रूप में वापसी की साहब बीवी और गुलाम के साथ। यह फिल्म सामंती समाज में एक स्त्री के अकेलेपन और टूटे रिश्तों को बख़ूबी दिखाती है। फिल्म को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी सराहना मिली। लेकिन यह सफलता भी गुरु दत्त (Guru Dutt) के अंदर के अंधेरे को दूर नहीं कर सकी। वहीदा रहमान, जो उनकी करीबी थीं, वो बताती हैं कि गुरु दत्त (Guru Dutt) अक्सर कहते थे, “कामयाबी और नाकामी के बीच कुछ भी नहीं होता।” उनका मन अब भी भटक रहा था। वो अकेलेपन से जूझते रहे, शराब और नींद की गोलियों का सहारा लेने लगे।

"मुझे लगता है, मैं पागल हो जाऊंगा"

गुरु दत्त (Guru Dutt) के शब्द थे, “मेरे पास सब कुछ है, फिर भी कुछ नहीं है।” ये एक कलाकार की आत्मा की पीड़ा थी। विमल मित्र जैसे लेखक और उनकी बहन ललिता लाजमी ने बताया कि वो मदद भी चुपचाप मांगते थे, उनके परिवार ने न तो उन्हें डॉक्टर के पास ले गए और न ही समाज ने उनकी हालत को गंभीरता से लिया। गुरु दत्त ने अपने अंदर के खालीपन से हार मान लिया था। 10 अक्टूबर 1964 को वो अपने ही घर में मृत पाए गए। उस रात उन्होंने शराब और नींद की गोलियों का घातक मेल पी लिया था। केवल 39 वर्ष की उम्र में सिनेमा का यह सितारा बुझ गया।

गुरु दत्त (Guru Dutt) की ज़िंदगी की सबसे बड़ी दुःखद घटना यह थी कि उन्होंने सब कुछ पा लिया था, शोहरत, पैसा, नाम but peace of mind नहीं मिला। उनकी फिल्मों के नायक जैसे अंततः अकेले और अस्वीकारित रह गए। ‘प्यासा’ के नायक को मरने के बाद पहचान मिलती है। गुरु दत्त के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। उन्हें सही मायनों में वही सम्मान और समझ उनके जाने के बाद मिला।

गुरु दत्त केवल एक निर्देशक या अभिनेता नहीं थे। वे एक संवेदनशील रचनाकार थे, जो अपनी आत्मा को फिल्म के हर फ्रेम में उड़ेलते थे।(Wikimedia commons)
गुरु दत्त केवल एक निर्देशक या अभिनेता नहीं थे। वे एक संवेदनशील रचनाकार थे, जो अपनी आत्मा को फिल्म के हर फ्रेम में उड़ेलते थे।(Wikimedia commons)

निष्कर्ष

गुरु दत्त (Guru Dutt) केवल एक निर्देशक या अभिनेता नहीं थे। वे एक संवेदनशील रचनाकार थे, जो अपनी आत्मा को फिल्म के हर फ्रेम में उड़ेलते थे। उनकी ज़िंदगी बताती है कि सिनेमा सिर्फ रोशनी और कैमरा नहीं होता, वह आत्मा, दर्द और जुनून का मेल होता है। यही वजह है कि आज भी जब कोई ‘प्यासा’ (Pyaasa) या ‘कागज़ के फूल’ ('Kagaz Ke Phool') देखता है, तो उसकी आंखें भर आती हैं। क्योंकि उन कहानियों में केवल किरदार नहीं, बल्कि गुरु दत्त का टूटा हुआ मन भी बोलता है।

सिनेमा प्रेमी आज भी सोचते हैं कि अगर गुरु दत्त का सफर थोड़ा और लंबा होता, तो वो भारतीय फिल्मों को एक नई दिशा दे सकते थे। [Rh/PS]

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