25 साल बाद लौटी तुलसी बहू: क्या 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' अब भी लोगों के दिलों में जगह बना पाएगा ?

सबसे मशहूर टीवी सीरियल 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' 25 साल बाद नए रूप में लौटा है। तुलसी बहू की वापसी के साथ सवाल उठ रहे हैं, क्या आज की आधुनिक पीढ़ी उसी पारंपरिक सोच को फिर से अपनाएगी या नई सोच के साथ कुछ बदलेगा भी ?
साल 2000 में जब ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ (‘Kyonki Saas Bhee Kabhee Bahoo Thee’) टीवी पर आया था, तब यह सीरियल हर घर की पहचान बन गया था। [Sora Ai]
साल 2000 में जब ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ (‘Kyonki Saas Bhee Kabhee Bahoo Thee’) टीवी पर आया था, तब यह सीरियल हर घर की पहचान बन गया था। [Sora Ai]
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एक बार फिर लौट आई 'तुलसी बहू'

साल 2000 में जब ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ (‘Kyonki Saas Bhee Kabhee Bahoo Thee’) टीवी पर आया था, तब यह सीरियल हर घर की पहचान बन गया था। और इसकी पहचान थी - तुलसी विरानी, यानी स्मृति ईरानी (Smriti Irani)। आज, करीब 25 साल बाद, यही सीरियल एक नए सीज़न के साथ टीवी पर वापस आया है। इस बार भी तुलसी बहू की मौजूदगी है, लेकिन एक नई दुनिया के साथ, जहाँ सोशल मीडिया, हैशटैग और सेल्फ़ी की संस्कृति है। लेकिन सवाल ये है, की क्या आज की पीढ़ी, जिसे हम 'जेन-ज़ी' कहते हैं, तुलसी बहू (Tulsi Bahu) की सोच से जुड़ पाएगी?

पुराने समय में यह धारावाहिक इतना लोकप्रिय था कि जब स्मृति ईरानी (Smriti Irani) ने 2004 में राजनीति में कदम रखा, तो चुनावी मंचों पर भी लोग उन्हें स्मृति नहीं, तुलसी बहू(Tulsi Bahu) कहकर पुकारते थे। वह आदर्श बहू बन चुकी थीं, जो सास-ससुर की सेवा करती है, पति के हर दुख-सुख में साथ देती है और परिवार के लिए अपनी इच्छाओं की बलि देती है। लेकिन इस ‘आदर्श’ की आलोचना भी खूब हुई। कई विशेषज्ञों का मानना है कि इस सीरियल ने महिलाओं की स्वतंत्र सोच और अधिकारों को एक दायरे में बांध दिया। बहू वही अच्छी जो चुप रहे, सब माने और त्याग करे। यानी एक तरफ़ इसने महिलाओं को स्क्रीन पर प्रमुखता दी, तो दूसरी तरफ़ परंपराओं की बेड़ियों में उन्हें जकड़ दिया।

दुनियाभर में छाया था 'तुलसी' का जादू

भारत में ही नहीं, नेपाल(Nepal) , भूटान(Bhutan), श्रीलंका (Sri Lanka), पाकिस्तान (Pakistan) और अफ़ग़ानिस्तान (Afghanistan) जैसे देशों में भी यह सीरियल बेहद लोकप्रिय रहा। अफ़ग़ानिस्तान में तो यह 'तुलसी' नाम से ही मशहूर था। वहाँ एक कहावत भी चल पड़ी थी, "जब लोग तुलसी देख रहे होते हैं, चोर चोरी कर लेते हैं।" रिसर्च पत्रों में लिखा गया था कि नेपाल की महिलाएं तुलसी जैसी बहू चाहती थीं, जो आज्ञाकारी हो, त्यागी हो। इस तरह, यह शो महिलाओं की एक निश्चित छवि बनाता चला गया, जिसे आदर्श माना जाने लगा।

टीवी निर्माता एकता कपूर (Ekta Kapoor) का दावा है कि इस सीरियल ने भारतीय महिलाओं को एक नई आवाज़ दी। उनके अनुसार, साल 2000 से 2005 के बीच महिलाएं पहली बार घर की बातचीत में हिस्सा लेने लगीं, और इसकी वजह टीवी धारावाहिक थे। लेकिन टीवी विशेषज्ञ माधुरी कहती हैं, इन सीरियलों में महिलाओं के मुद्दों को बहुत सजाकर दिखाया गया। आख़िर में सब कुछ वैसा ही रहता है, पुरुष प्रधान व्यवस्था जस की तस है। यह धारावाहिक उन महिलाओं को फिर से परंपराओं में बांध लाया जो अपने लिए कुछ अलग सोचने लगी थीं। इस शो ने औरतों को सिर्फ़ दो रूपों में बाँट दिया, या तो वो देवी तुलसी हैं या डायन मंदिरा।

'रजनी', 'उड़ान', और 'शांति' जैसे धारावाहिकों की परंपरा

अगर हम 2000 से पहले के टीवी शोज़ पर नज़र डालें, तो ‘रजनी’, ‘उड़ान’, और ‘शांति’ जैसे धारावाहिकों ने महिलाओं की आज़ादी, हिम्मत और आत्मनिर्भरता की कहानियाँ कही थीं। रजनी (1985),इस धारावाहिक में एक महिला है जो भ्रष्ट सिस्टम के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती है। उड़ान (1989), यह धारावाहिक पहली महिला डीजीपी की सच्ची कहानी पर आधारित है, जो समाज की रुकावटों को पार कर अपनी पहचान बनाती है। शांति (1994), इसमें एक पत्रकार की कहानी है जो सच को सामने लाने के लिए किसी से नहीं डरती। इनके मुक़ाबले, 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' ज़्यादा भावनात्मक, पारिवारिक और परंपरागत रूप लेकर आया।

स्मृति ईरानी का मानना है कि शो ने कई गंभीर मुद्दों को उठाया, जिनमें मैरिटल रेप, एडल्ट लिटरेसी (बुजुर्गों की शिक्षा), और महिला सशक्तिकरण शामिल हैं।

एक एपिसोड में तुलसी, अपनी बहू के साथ खड़ी होती है जो वैवाहिक बलात्कार की शिकार होती है। वहीं, शो में ‘बा’ यानी दादी को फ़ैशन डिज़ाइन सीखते हुए दिखाया गया, जो अपने आप में प्रगतिशील दृश्य था। स्मृति ने यह भी कहा कि इस शो में उन्हें पुरुष कलाकारों से ज़्यादा मेहनताना (फ़ीस) मिलता था, जो उस समय की इंडस्ट्री में एक बड़ी बात थी।

क्या आज के दौर में चल पाएगा 'तुलसी मॉडल' ?

आज की जेन-ज़ी पीढ़ी अलग सोचती है। वह अपने अस्तित्व, पसंद-नापसंद और करियर को महत्व देती है। उसके लिए रिश्तों का मतलब बराबरी है, न कि त्याग का एकतरफ़ा बोझ। अब जब हर व्यक्ति मोबाइल या ओटीटी प्लेटफॉर्म पर अपनी पसंद का शो देखता है, तो क्या पारिवारिक, त्याग की कहानियाँ अब भी लोगों को जोड़ पाएँगी ? अगर इस बार ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ में दिखाया गया है कि औरतें रिश्ते निभाएँ लेकिन अपनी पहचान न भूलें, तो दोबारा लाना सही है। पर अगर वही पुरानी सोच दोहराई गई, तो शायद यह नई पीढ़ी से जुड़ नहीं पाएगा।

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'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' जैसे धरावाहिक से जुड़े कई अहम सवाल उठ रहें हैं, जैसे की क्या टीवी इंडस्ट्री अब नए प्रयोग करने से डर रही है ? क्या 'पुरानी चाशनी' में लिपटी कहानियाँ दिखाना सुरक्षित और रिस्क-फ्री लगता है ? 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' जैसे हिट शो को दोबारा लाकर शायद चैनल और प्रोड्यूसर एक सुरक्षित रास्ता चुन रहे हैं। लेकिन अगर वो नए नज़रिए के साथ इसे पेश करें, तो यह बदलाव भी बन सकता है।

निष्कर्ष

शो बिज़नेस में नॉस्टैल्जिया एक मजबूत कार्ड होता है। लेकिन सवाल ये है कि क्या वही पुराने मूल्य आज की नई पीढ़ी के दिल को छू पाएँगे? शायद इसका जवाब ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी, सीज़न 2’ के आने वाले एपिसोड में मिलेगा। अगर इसमें तुलसी बहू सिर्फ रसोई नहीं संभालती, बल्कि बेटियों को उड़ान देना भी सिखाती है, तो यह वापसी सार्थक होगी। वरना, यह एक और थाली में परोसी पुरानी कहानी बनकर रह जाएगी। [Rh/PS]

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