

31 दिसंबर 1915 को सतारा के एक छोटे से गांव में जन्मी यमुनाबाई का जीवन किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं था। कोल्हाटी समुदाय में जन्मी यमुना के हिस्से खुशियां कम और जिम्मेदारियां ज्यादा आईं। पिता शराब के आदी थे और घर में तंगहाली का डेरा था। मात्र 10 साल की उम्र में, जब बच्चे खेल-कूद में व्यस्त होते हैं, यमुना अपनी मां गीताबाई के साथ सड़कों पर गाकर और नाचकर दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर रही थीं।
सड़कों पर मिलने वाली वह तालियां और कभी-कभी मिलने वाले ताने ही यमुनाबाई (Yamunabai) के पहले गुरु बने। यहीं से उन्हें भीड़ की नब्ज पकड़ना और कला को जीने का सलीका आया। आगे चलकर यमुनाबाई जावले दुनिया के लिए 'यमुनाबाई वाईकर' बन गईं।
यमुनाबाई की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने लावणी को केवल 'मसालेदार मनोरंजन' नहीं रहने दिया। उन्होंने बॉम्बे के फकीर मोहम्मद और कोल्हापुर के अख्तरभाई से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सीखा। नतीजा यह हुआ कि उनकी लावणी में ठुमरी की नजाकत, गजल की गहराई और तराने की रफ्तार घुल गई।
वह पेशवा काल की उस लुप्त होती 'बैठकीची लावणी' की आखिरी कड़ी थीं, जहां कलाकार खड़ा होकर नाचता नहीं, बल्कि बैठकर केवल अपनी आंखों और गले के इशारों से पूरे ब्रह्मांड का शृंगार और विरह बयां कर देता था। उनकी 'यमुना-हीरा-तारा' संगीत पार्टी का डंका पूरे महाराष्ट्र (Maharashtra) में बजता था।
यमुनाबाई केवल एक कलाकार नहीं, बल्कि एक विद्रोही भी थीं। उन्होंने उस दौर में लावणी की मर्यादा की लड़ाई लड़ी, जब इस कला को 'अनैतिक' माना जाता था। उन्होंने सिद्ध किया कि लावणी में 'शृंगार' (प्रेम) के साथ-साथ 'निर्गुणी' (अध्यात्म) भी है।
अपनी कला से जो धन उन्होंने कमाया, उससे अपने समुदाय के लिए घर बनवाए। 1972 के भीषण सूखे के दौरान उन्होंने जल संरक्षण के लिए जागरूकता फैलाई।
उनकी सात दशक लंबी साधना का प्रतिफल उन्हें 2012 में 'पद्म श्री' के रूप में मिला। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से लेकर टैगोर रत्न तक, शायद ही कोई ऐसा सम्मान बचा हो जो उन्हें न मिला हों।
102 साल की एक लंबी और गौरवशाली पारी खेलकर 15 मई 2018 को यमुनाबाई का निधन हो गया।
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