नवरात्रि (Navratri) अर्थात नौ रातें। हमारे सनातन धर्म में रात्रि का अपना महत्व है। भगवद्गीता के अनुसार रात्रि में दो प्रकार के मनुष्य जागते हैं, एक वो जो संयम धारण करके अपने कर्तव्य अथवा तप में लीन रहता है और दूसरा वो जो भोग, विलास, प्रपंच में लगा रहता है।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।
ऐसे में हमें विचार करना है कि हम क्या बनें, योगी अथवा भोगी? तो बात यहाँ नौ रातों की हो रही है। नौ रात जागरण करने की। जागरण अपने अंतःकरण की। हमारे अंदर निहित शक्ति के जागरण की। साधक साधना करते हैं, भक्त संकीर्तन, कथा इत्यादि। यहाँ एक प्रश्न यह भी है कि किस शक्ति के जागृति की बात हो रही है? ये वही शक्ति के जागरण की बात है जिसके जागृत होने से रत्नाकर डाकू से महर्षि बन सकता है, मूढ़ कालिदास मेघदूत का रचनाकार बन सकता है, गदाधर रामकृष्ण परमहंस बन सकता है, एक राजा सन्यासी भर्तृहरि, और तो और एक तपस्वी रावण पर विजय पा सकता है।
श्रीराम ने नारद मुनि के दिशा निर्देश पर शक्ति की पूजा की, और अपने अन्तःकारण के शक्ति पुंज को दीप्तिमान किया और अंततः रावण पर विजय प्राप्त की। इसी बात को हिन्दी के मूर्धन्य सूर्यकांत त्रिपाठी निराला अपने कविता 'राम की शक्ति पूजा' में सुंदर शब्दों से सजा कर लिखते हैं- ' पुरुष-सिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण, आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर।'
यह प्रसंग तब का है, जब एक दिन राम-रावण युद्ध में राम जी थोड़े हारे-हारे से महसूस करने लगे तब जामवंत जी ने उनसे यह उपर्युक्त पंक्तियाँ कहीं। उनके आज्ञा से भगवान राम ने फिर नौ दिन शक्ति की आराधना की। पर यह आराधना सरल भी नहीं है। क्योंकि किसी भी साधना अथवा पड़ाव को पार करने के लिए परीक्षा देना आवश्यक है। ऐसा ही कुछ राम जी के साथ भी हुआ, अंतिम दिवस पर उनके नील कमल कम पड़ गए। यह देखकर राम उदास हो गए, पर उन्हें तत्काल या आया कि उनकी माता उन्हें राजीव नयनों वाला कहती हैं, अतः क्यों न वो नयनों को ही चढ़ा दें।
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।
जैसे ही राम ने अपने नयन को निकालने के लिए अपने तीर को बढ़ाया, वैसे ही तुरंत भगवती प्रकट हो गईं और रावण पर विजय का वरदान दिया। इसी बात को 'निराला' लिखते हैं-
साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!”
कह लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।
देखा राम ने—सामने श्री दुर्गा, भास्वर
वाम पद असुर-स्कंध पर, रहा दक्षिण हरि पर:
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र-सज्जित,
मंद स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित,
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बाएँ रण-रंग राग,
मस्तक पर शंकर। पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मंदस्वर वंदन कर।
''होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन!''
कह महाशक्ति राम के वदन में हुईं लीन।
यह प्रसंग हर एक व्यक्ति के लिए शिक्षा है कि, इस संसार में कुछ भी अप्राप्य नहीं है। शक्ति के साधक को वह सब कुछ सुगमता से प्राप्त हो सकता है, जो किसी अन्य के लिए प्राप्त करना अत्यंत दुष्कर हो। पर शर्त यही है कि व्यक्ति अपने अंतःकरण को जागृत करें।