

8 मई 1926 को अविभाजित बंगाल (Bengal) के बरिसल जिले में जन्मे तपन राय चौधरी का बचपन केवल रबींद्र संगीत की धुनों तक सीमित नहीं था। 1940 का दशक भारत में उथल-पुथल का दौर था। युवा तपन का खून भी खौल रहा था।
महज किताबों में खोए रहने वाले विद्यार्थी बनने के बजाय, उन्होंने 'भारत छोड़ो आंदोलन' में कूदना स्वीकार किया। इतिहासकार बनने से पहले ही वे इतिहास का हिस्सा बन चुके थे। बाद में उन्होंने अपने संस्मरणों में जिक्र किया कि कैसे विभाजन की त्रासदी ने उनके परिवार को तोड़ दिया था। यही वह दौर था जिसने उन्हें सिखाया कि इतिहास केवल लिखे हुए दस्तावेजों में नहीं, बल्कि उन खामोशियो में भी छिपा होता है जो इंसान अपने सीने में दफन कर लेता है।
तपन राय चौधरी की बौद्धिक भूख उन्हें दो अलग-अलग दुनियाओं में ले गई। पहले उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में दिग्गज इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार के सानिध्य में अपनी पहली डी.फिल. (डॉक्टरेट) पूरी की। यहां उन्होंने सीखा कि पुराने दस्तावेजों की धूल कैसे झाड़ी जाती है और तथ्यों को कैसे निचोड़ा जाता है।
लेकिन उनकी यात्रा अभी अधूरी थी। वे ऑक्सफोर्ड के बैलियोल कॉलेज पहुंचे, जहां उन्होंने अपनी दूसरी डी.फिल. हासिल की। यही कारण था कि वे दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और बाद में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगे। वे ऑक्सफोर्ड की कठोरता को भारतीय बहसों में और भारतीय इतिहास की गहराई को पश्चिमी कक्षाओं में ले आए।
तपन राय चौधरी के करियर का सबसे दिलचस्प मोड़ वह था, जब उन्होंने 'रुपए-पैसों' के इतिहास से 'दिल और दिमाग के इतिहास' की ओर रुख किया।
अपने करियर के मध्य में, उन्होंने इरफान हबीब जैसे मार्क्सवादी इतिहासकार के साथ मिलकर 'द कैम्ब्रिज इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया' का संपादन किया। यह एक ऐसा ग्रंथ था जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास को हमेशा के लिए बदल दिया। डच ईस्ट इंडिया कंपनी और कोरोमंडल तट के व्यापार पर उनका काम इतना बारीक था कि लोग कहते थे, "तपन बाबू पुरानी बही-खातों से भी कहानी निकाल सकते हैं।"
लेकिन 1980 के दशक में कुछ बदला। शायद बरिसल की यादें या विभाजन का दर्द उन्हें कचोट रहा था। उन्होंने महसूस किया कि इंसान केवल रोटी और व्यापार के लिए नहीं जीता। उसका अपना एक 'मानसिक संसार' होता है और यहीं से जन्म हुआ उनकी मास्टरपीस किताब 'यूरोप रिकन्सीडर्ड' का।
उन्होंने एक ऐसा सवाल पूछा जो उस समय कोई नहीं पूछ रहा था। जब 19वीं सदी के बंगाली बुद्धिजीवियों ने पहली बार अंग्रेजों को देखा, तो उन्हें कैसा महसूस हुआ? क्या वे केवल चकाचौंध थे? नहीं। तपन बाबू ने भूदेव मुखोपाध्याय, बंकिमचंद्र और विवेकानंद के लेखन को खंगाला और बताया कि यह रिश्ता 'प्रेम और घृणा', 'प्रशंसा और आलोचना' का एक जटिल मिश्रण था। उन्होंने इतिहास में 'मनोविज्ञान' का तड़का लगाया और बताया कि कैसे हमारे पूर्वज प्यार करते थे, कैसे डरते थे और कैसे अपनी रसोइयों और शयनकक्षों में अपनी संस्कृति को बचाए रखते थे।
नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन, जो उनके करीबी मित्र थे, अक्सर तपन की 'किस्सागोई' और उनके 'सेंस ऑफ ह्यूमर' (हास्यबोध) की तारीफ करते थे। तपन राय चौधरी को खाना बनाने और खिलाने का बहुत शौक था।
2007 में भारत सरकार ने उन्हें 'पद्म भूषण' से सम्मानित किया और वर्ष 2010 में राष्ट्रीय अनुसंधान प्रोफसर का पद मिला।
26 नवंबर 2014 को 88 वर्ष की आयु में जब उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा, तो भारत (India) और ब्रिटेन (Britain) दोनों के अकादमिक गलियारों में एक सन्नाटा छा गया। यह सन्नाटा किसी सामान्य प्रोफेसर के जाने का नहीं था, बल्कि उस शख्स के जाने का था जो पूरब और पश्चिम के बीच एक बौद्धिक सेतु था।
(BA)