![राजेंद्र यादव हिंदी साहित्य के ऐसे लेखक रहे हैं, जिनका नाम लेते ही विवाद, साहस और विद्रोह की गंध एक साथ महसूस होती है। [Sora Ai]](http://media.assettype.com/newsgram-hindi%2F2025-08-18%2Fyddpmfol%2Fassetstask01k2yjpb2re5wams4gh6r7cqgm1755520512img0.webp?w=480&auto=format%2Ccompress&fit=max)
राजेंद्र यादव (Rajendra Yadav) हिंदी साहित्य (Hindi Literature) के ऐसे लेखक रहे हैं, जिनका नाम लेते ही विवाद, साहस और विद्रोह की गंध एक साथ महसूस होती है। वे सिर्फ एक लेखक ही नहीं, बल्कि विचारों की क्रांति थे, जिन्होंने हिंदी साहित्य (Hindi Literature) को परंपरागत दायरों से बाहर निकालकर नई दिशा दी। उनकी कलम ने जहां प्रेम और जीवन की परतें खोलीं, वहीं सामाजिक ढांचे और पितृसत्तात्मक सोच को भी गहराई से चुनौती दी। उनकी लिखी हुई पंक्तियाँ आज भी बहस को जन्म देती हैं। मसलन, “स्त्री कोई वस्तु नहीं है, जिसे इस्तेमाल कर फेंक दिया जाए, बल्कि वह अपने अस्तित्व और इच्छाओं के साथ जीने वाली एक स्वतंत्र सत्ता है।” इस तरह के कथन ही उन्हें हिंदी साहित्य का सबसे "विवादित" लेकिन सबसे "जरूरी" लेखक (Hindi Literature's Most Controversial Writer) बनाते हैं।
राजेंद्र यादव (Rajendra Yadav) का साहित्य पारंपरिक "भद्र" लेखन से अलग था। उन्होंने न केवल अपनी कहानियों और उपन्यासों में, बल्कि ‘हंस’ पत्रिका ('Hans' Magazine) के माध्यम से भी समाज में स्थापित मान्यताओं को सीधी चुनौती दी। अक्सर सही चीज लोगों के लिए विवादित हो जाते हैं कुछ ऐसा ही राजेंद्र यादव (Rajendra Yadav) के साथ भी हुआ। चाहे स्त्री-विमर्श हो, दलित साहित्य (Dalit Literature) की आवाज़, या फिर राजनीतिक-सामाजिक विद्रोह, राजेंद्र यादव हमेशा (Rajendra Yadav) बहस के केंद्र में रहे। कह सकते हैं कि हिंदी साहित्य की जिस धारा में वे उतरे, वहाँ उन्होंने न सिर्फ लहरें उठाईं, बल्कि पुराने किनारों को भी हिला दिया। शायद यही वजह है कि उन्हें “हिंदी साहित्य का सबसे विवादित लेखक” (Hindi Literature's Most Controversial Writer) कहा जाता है।
कौन हैं राजेंद्र यादव?
राजेंद्र यादव (Rajendra Yadav) हिंदी साहित्य के ऐसे लेखक थे जिन्होंने अपने विद्रोही विचारों और बेबाक लेखन से परंपरागत सोच को चुनौती दी। उनका जन्म 28 अगस्त 1929 को आगरा (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। वे बचपन से ही पढ़ाई-लिखाई में गहरी रुचि रखते थे और कॉलेज के दिनों में ही उन्होंने कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया। साहित्य को उन्होंने सिर्फ मनोरंजन का माध्यम नहीं माना, बल्कि इसे समाज में बदलाव लाने का औज़ार बना दिया।
कैसे हुई साहित्यिक यात्रा की शुरुआत?
राजेंद्र यादव (Rajendra Yadav) की लेखनी की शुरुआत कहानियों से हुई। उनकी शुरुआती कहानियों में साधारण लोगों का जीवन, उनकी समस्याएँ और समाज की सच्चाई झलकती थी। 1951 में उन्होंने अपना पहला उपन्यास “सारा आकाश” (Sara Aakash) लिखा, जिसे हिंदी साहित्य में एक मील का पत्थर माना जाता है। इस उपन्यास में एक मध्यमवर्गीय परिवार के संघर्ष, विवाह के बाद पति-पत्नी के रिश्तों की जटिलता और पितृसत्ता की सच्चाइयाँ सामने आती हैं। “सारा आकाश” न केवल उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना है बल्कि उस पर बाद में एक फिल्म भी बनी, जिसने उन्हें और अधिक पहचान दिलाई। इसके अलावा उन्होंने “उखड़े हुए लोग”, “शह और मात” जैसी रचनाएँ लिखीं, जिन्होंने उन्हें पाठकों के बीच चर्चित बना दिया। राजेंद्र यादव का नाम सबसे ज्यादा “स्त्री-विमर्श” और दलित साहित्य से जुड़ने पर विवादों में आया।
उनकी पत्रिका “हंस” ('Hans' Magazine) ने बार-बार ऐसे मुद्दों को उठाया जो समाज के लिए असुविधाजनक थे। उनकी रचना “सारा आकाश” पर भी खूब विवाद हुआ क्योंकि इसमें पति-पत्नी के रिश्तों और स्त्री के अधिकारों को जिस स्पष्टता से दिखाया गया था, वह उस दौर में असहज करने वाला था। राजेंद्र यादव को हिंदी साहित्य का "विवादित चेहरा" कहा गया, लेकिन यही विवाद उनकी सबसे बड़ी ताकत भी साबित हुए। उन्होंने अपने लेखन से यह साबित किया कि साहित्य सिर्फ कहानियाँ सुनाने के लिए नहीं, बल्कि समाज को झकझोरने के लिए भी होता है।
‘हंस’ पत्रिका और साहित्यिक आंदोलन
राजेंद्र यादव का नाम उनकी प्रसिद्ध पत्रिका ‘हंस’ ('Hans' Magazine) से हमेशा जुड़ा रहेगा। ‘हंस’ पत्रिका का आरंभ मूल रूप से प्रेमचंद ने किया था, लेकिन स्वतंत्रता के बाद यह बंद हो गई थी। राजेंद्र यादव ने 1986 में इसे फिर से शुरू किया और इसे समाज में हाशिये पर खड़े लोगों की आवाज़ बना दिया।
‘हंस’ ('Hans' Magazine) के जरिए उन्होंने स्त्री-विमर्श, दलित साहित्य और अल्पसंख्यक मुद्दों को मजबूती से उठाया। यह उस समय बहुत बड़ा कदम था, क्योंकि हिंदी साहित्य मुख्यतः पुरुष-प्रधान और परंपरागत विषयों तक ही सीमित था। ‘हंस’ ने खुलकर स्त्रियों के अधिकार, उनकी इच्छाओं और पितृसत्ता की बेड़ियों पर प्रहार किया। इसी तरह दलित साहित्य को भी एक नया मंच मिला, जिसने भारतीय समाज की गहराई में छिपे भेदभाव और शोषण को उजागर किया। राजेंद्र यादव ने ‘हंस’ को सिर्फ पत्रिका नहीं बल्कि एक आंदोलन बना दिया। हर अंक में वे ऐसे लेख और कहानियाँ छापते, जिन पर बहस छिड़ जाए और समाज सोचने को मजबूर हो। यही वजह थी कि ‘हंस’ ने हिंदी साहित्य में एक नई चेतना पैदा की और इसे बदलते समय का आईना बना दिया।
"हंस" का भविष्य अंधकार में?
प्रोफेसर मैनेजर पांडेय, जो राजेन्द्र यादव के साहित्यिक आलोचक और साथी थे, उन्होंने कई इंटरव्यूज में कहा था कि "'हंस' का भविष्य अंधकारमय हो गया है"। उस दौर में राजेन्द्र यादव ने 'हंस' को साहित्य का एक क्रांतिकारी मंच बना दिया था। स्त्री विमर्श, दलित चिंतन और दमित यौन वृत्तियों की बहस को उसने खुलकर मंच दिया। ऐसे में यह चिंताजनक अंगना उस शक्ति का अस्तित्व खोने जैसा है जो कभी हिंदी साहित्य को बहस और निर्माण दोनों की नई दिशा देता था। मैनेजर पांडेय ने कहा कि अब ‘हंस’ की धारा में वह तीव्रता और विविधता नहीं दिखती जो पहले होती थी। इस बदलाव ने पाठकों और आलोचकों दोनों के मन में सवाल खड़े कर दिए हैं। क्या 'हंस' अब उस चुनौतीपूर्ण और विद्रोही स्वरूप को बरकरार रख पाएगा जो राजेन्द्र यादव ने स्थापित किया था? उस अंतिम बात का जवाब शायद समय ही देगा।
राजेंद्र यादव का हिंदी साहित्य को दिया गया सबसे बड़ा योगदान था ‘हंस’ का पुनर्प्रकाशन। उन्होंने इसे केवल एक पत्रिका नहीं रहने दिया, बल्कि इसे एक ऐसा मंच बना दिया जहाँ अनजान और नए कहानीकारों को भी अपनी पहचान बनाने का मौका मिला। इन्हीं कर्म से उन्हें विवाद का भी खूब सामना करना पड़ा। उन्होंने नए लेखकों को जगह दी और यह परवाह नहीं की कि इससे क्या विवाद खड़े होंगे। बल्कि वे जानते-बूझते विवादों को जन्म भी देते और उन्हें झेलते भी थे। ‘हंस’ के माध्यम से उन्होंने साहित्य के दायरे से आगे बढ़कर समाज के गहरे सवालों पर बहस छेड़ी।
Also Read: भारत की "Most Controversial" धार्मिक पुस्तक पढ़ें!
दलित विमर्श, स्त्री प्रश्न और यौनिकता जैसे मुद्दों को साहित्य में जगह दी। यही कारण है कि आज भी ‘हंस’ को हिंदी साहित्य का विद्रोही और प्रगतिशील मंच माना जाता है। राजेंद्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश की उस त्रयी का हिस्सा थे जिसने हिंदी कहानी को नई दिशा दी। उनकी कहानियों में दमित इच्छाओं की खोज दिखती है, लेकिन वे उतने प्रभावी नहीं हो पाए। आज की पीढ़ी उन्हें अधिकतर ‘हंस’ के संपादक के रूप में याद करती है, जबकि पिछली पीढ़ी उन्हें नई कहानी आंदोलन के नायक के तौर पर जानती है। [Rh/SP]