भाग-3: 'हमें डर है हम, खो न जाएं कहीं'

न्यूज़ग्राम विशेष: प्रस्तुत अंश जयनाथ मिसरा जी द्वारा अभिषेक कुमार को बताया गया वृतांत है।
जयनाथ मिसरा के परिवार की महिलायें। बाएं से दूसरी सुशीला मिसरा।
जयनाथ मिसरा के परिवार की महिलायें। बाएं से दूसरी सुशीला मिसरा।

-अभिषेक कुमार

असल में मनमोहन अपने पिता के पास इंग्लैंड जाना चाहता था। विदेश में अपनी किस्मत आजमाई का इच्छुक था। इसी नाते कैलाश उसे अपनी फैक्ट्री में काम करने का प्रस्ताव भी दे चुका था। सुनहरे मौके की तलाश में मनमोहन भी अपने पिता की तरह विदेश चला गया। सुशीला ने ना तो अपने पति को रोका था और ना ही अपने बेटे के सपनों पर कोई बेड़ी बाँधी किन्तु सुशीला के अलावा कोई और भी था जिसके मन की छलनी से यह घटना छन कर धुंदली पड़ चुकी यादों को फिर से मन के फ्रेम में पेंट कर रही थी।

जब कैलाश विदेश गया था तब उन दिनों जयनाथ को कोई खास सुध ना थी। वो फ़क़त 10 महीने का था। पर आज उसका विकसित दिमाग परिवार की दरख्त की कटी डालियों को देख सकता था। पत्तों के झड़ जाने से डालियों में उठी उस तीखी टीस को सुन सकता था। माँ की चुप्पी में खौल रहे अकेलेपन को महसूस कर सकता था। कॉलेज के दिनों में उसकी भावनाओं में इसी तरह के बदलाव हो रहे थे। जिन वालों ने उसे कभी परेशान नहीं किया, वही बातें उसके भीतर कैलाश के लिए वेरथी अंकुरित कर रही थीं। 20 साल बीत गए... पर जयनाथ अभी तक अपने पिता के स्नेह से अछूता था ।

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बस अब बहुत हुआ। अब और नहीं। जयनाथ अब और चुप नहीं बैठ सकता। उसके दिमाग में अपने पिता को लेकर हज़ारों सवाल आ रहे थे। हर सवाल खलाओं में कुछ देर भटकता और फिर खाली हाथ लौट आता । घनघोर बियाबान में कुछ देर दरिया को ढूंढता फिर प्यासा तड़प उठता। बीहड़ ख्यालों में कुछ देर भागता फिर हांफ कर बैठ जाता।

जयनाथ ने अपनी इसी बेचैनी में कैलाश को एक पत्र लिखा। यह पत्र अंग्रेज़ी में लिखा गया था।

Dear Father (प्रिय पिता),

आशा है कि आप सकुशल होंगे। हम सब भी यहाँ ठीक हैं। अपने पिछले पत्र में आपने मेरी पढ़ाई के बारे में पूछा, मुझे अच्छा लगा आपको जान कर खुशी होगी कि मैंने अपनी ग्रेजुएशन पूरी कर ली है। आपने अभी तक मेरी पढ़ाई में जो आर्थिक मदद की उसके लिए शुक्रिया। मुझे अब और आपके पैसों की ज़रूरत नहीं। मैं अपना ख्याल रखने के काबिल हो चुका हूँ। माफ़ कीजिएगा अगर शब्दों में थोड़ी कड़वाहट मिले। क्योंकि पिता से किस तरह से बात करनी चाहिए शायद मुझे इस बात का सलीका नहीं। इसके कसूरवार आप खुद हैं।

क्या आपको इन बीते सालों में कभी अपने परिवार की याद नहीं आई? क्या आपका माँ से मिलने का कभी दिल नहीं किया? उनकी बीमार हालत के बारे में खबर होने के बावजूद आप उनसे मिलने नहीं आए ताज्जुब हुआ मैं जानता हूँ कि माँ आपसे यह बातें नहीं कहेंगी। इसलिए मुझे कहनी पड़ रही हैं।

मैं यह पत्र मात्र इसलिए लिख रहा हूँ ताकि आपको याद दिला सकूँ कि यहाँ बुलंदशहर में भी आपका एक परिवार है। मैं चाहता हूँ कि आप कुछ दिनों के लिए यहाँ आएं।

भइया को मेरा स्नेह दीजियेगा । आपके उत्तर के इंतज़ार में।

सुशीला मिसरा का पुत्र

जयनाथ

भारत से कैलाश को ऐसे दो तीन और पत्र भेजे गए। कैलाश ने किसी भी खत का जवाब देना ज़रूरी ना समझा। जयनाथ के पास अपने चित को शांत करने का एक ही तरीका शेष था। उसने वही रास्ता अपनाया। वो लखनऊ जाकर पासपोर्ट के लिए अप्लाई कर आया था। उसका मन अपने पिता से मिलने को अधीर था।

मामला अटका कि पासपोर्ट के लिए एक गारंटर की ज़रूरत पड़ेगी। विदेश जाने के लिए पैसों की ज़रूरत भी लाज़िमी है। यह कहाँ से आए। जयनाथ अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगा। उसकी समझ में कुछ ना आ रहा था। तभी उसने सड़क पर इश्तेहार देखा। दिल्ली से हरी सिंह एंड संस का इश्तिहार था । मात्र 600 रुपए में देश की बयार से लंदन तक के सफर की गारंटी थी। बशर्ते सफर कुली क्लास में होगा। पानी के रास्ते से मेसजरीस मैरीटाइम्स नाम की फ्रेंच कंपनी इस काम को अंजाम दे रही थी। फिर क्या था, इस खुशनुमा खबर ने उसके दिमाग को हिरण किया और उसने विदेश में बैठे अपने पिता को ही गॉरन्टी के रूप में रख दिया। किस्मत ने साथ दिया और पासपोर्ट के लिए आवेदन पास हो गया। सारा खेल अब हरी सिंह एंड संस के लिए 600 रुपए जमा करने का था। इस मामले में उसे अपने सुरेश चाचा से कोई उम्मीद ना थी। निरंजन तो जयनाथ को देखते ही अपना रास्ता बदल लिया करता था। जयनाथ कहीं पैसे ना मांग ले इस डर से निरंजन अपने छोटे भाई के साथ एक ही कमरे में खड़े होने से बचने लगा। इन सब बातों से जयनाथ के हौसले कहाँ मुंह लटकाने वाले थे। उसने अपनी किताबें बेच दीं; तीन सो हाथ लगे। बाकी तीन सो के लिए उसने अपनी माँ से कहा। माँ ने अपने बेटे को रोकने की सोची पर उसी माँ ने हाथों से अपने सोने के कंगन उतार कर बेटे की हथेली पर रख दिए। उस दिन जयनाथ को कमरे से बाहर निकलता देख सुशीला का मन अपने बेटे को रोकना चाह रहा था। उसने अभी तक परिवार के लोगों को विदेश जाता ही देखा था किसी को लौट कर आता नहीं। सुशीला के अनकहे शब्द हमेशा की तरह उसी के दिल में डूब कर अपनी जान गवा बैठे। कुछ कहने और कुछ छुपाने के बीच में सुशीला हर बार खुद को बेबस पाती। हर बार बेबसी की चोली से झूठी ख़ुशी चेहरे पर पोत कर अपने बच्चों के सामने चली आती। ऐसी ही थी सुशीला अपने से पहले अपनों का सोचना उसका मूल स्वभाव था।

जयनाथ मिसरा
जयनाथ मिसरा

उधर कंगन बेचकर जयनाथ की पॉकेट में चार सो रुपए विराजित हो गए। यानी लंदन जाने के लिए जेब में सात सो रुपए हो गए थे। उसे इंतज़ार था पासपोर्ट आने का। इसके लिए वो हर महीने लखनऊ पासपोर्ट ऑफिस में जाकर घंटो बैठता। करते कराते, आठ नौ महीनों बाद पासपोर्ट हाथ लग ही गया। पासपोर्ट के लिए मनमोहन को भी इतने ही चक्कर लगाने पड़े थे। हाँ मगर उसके लिए पैसों का इंतज़ाम कैलाश ने खुद कर दिया था।

कुछ दिनों बाद जयनाथ दिल्ली पहुंच गया: हरी सिंह एंड संस के पास लंदन जाने की पक्की खबर के साथ ही घर लौटा। तुरंत ही अपने बड़े भाई को पत्र लिखा कि वो लंदन आ रहा है। दो हफ्ते ऐसे बीते जैसे सांप के शरीर से खाल निकली हो। आख़िरकार वो दिन आ ही गया जब मिसरा परिवार का तीसरा चिराग भी अपने वतन की मिट्टी को सदा के लिए छोड़ने वाला था। तय हुए समय पर जयनाथ बॉम्बे पहुंच गया। सामने विशालकाय जहाज उसका इंतज़ार कर रही थी। लोगों की उधड़ बुन में दबता बचता हुआ जयनाथ जहाज के अंदर गया। उसके पास ज़्यादा सामान नहीं था। जेब में 50 रुपए थे, साथ में दो तीन जोड़ी कपड़े और दिमाग में बड़े भाई के घर का एड्रेस कुली क्लास में पहुंचते ही अजीब सी गंध से उसका सामना हुआ। इसी गंध में उसे अगले दस दिन बिताने थे। कोने में खाली जगह देख कर वो चुपचाप बैठ गया ।

सुहाना सफर, और ये मौसम हसीं - मधुमती फिल्म का यह गीत गुनगुनाता हुआ नीले चप्पल वाला पतला सरदार बोट के चारों ओर चक्कर लगा रहा था। हमें डर है हम, खो ना जाएँ कहीं - इतना कह कर सरदार दो कदम और कूद पड़ा, गिरते गिरते बचा... फिर बोल पड़ा सुहाना सफर और यह मौसम हसीं! 1958 में सिनेमा घरों में दस्तक देने वाली फिल्म मधुमती के गाने तब 1960 में भी लोगों के ज़हन में ज़िंदा और ताजा थे। जयनाथ पगड़ी धारी को बेतकल्लुफ नज़र से घूर रहा था। उसके अलावा सरदार की ताल पर कुली क्लास की पूरी आवाम थिरक रही थी। देखते ही देखते रात हो गयी। ख आया । रोटी का पहला निवाला लेते ही जयनाथ ने आधे गले से ही रोटी उगल दी। इतना खराब खाना उसने पहले कभी नहीं खाया था। उसके बगल बैठे प्रिंट शर्ट वाले ने पहला निवाला निगल लिया था । रोटी का दूसरा टुकड़ा तोड़ नहीं पाया।

जयनाथ नीचे गिरे निवाले को उठा रहा था... "दालमोट खाओगे”- प्रिंट शर्ट वाले ने पूछा ।

जयनाथ मिसरा के परिवार की महिलायें। बाएं से दूसरी सुशीला मिसरा।
'पापा'- जयनाथ मिसरा

दोनों ने उस रात दालमोट खा कर ही अपना पेट भरा। सोने के लिए वहां हर दो खम्बो से कपड़े की लम्बी चादर टंगी हुई थी। रात बीतने लगी। सरदार सपने में भी गुनगुना रहा था - सुह... फर ये खाना...खरा.. र र . ब ...! अगले दिन भी पेट पूजा के लिए दालमोट ही वरदान बना। जयनाथ को लगा कि ऐसे तो काम नहीं बनेगा। फिर दोनों नौजवानों ने थोड़ा साहस दिखाया और साफ़ सुथरे कपड़े पहन कर ऊपर वाले फ्लोर पर चले गए। वहां ऊँचे दर्जे के लोग थे। या दर्जा जो भी हो कुली क्लॉस वालों से ज़्यादा ही पैसे दिए थे। इन दोनों की जवानी बियर की कांच की बोतल से जा टकराई। जयनाथ के पास 50 रुपए थे। दूसरे नौजवान के पास भी पैसे थे ही। दोनों ने मिल कर दो बियर की बोतल खरीदी। आए और गटक गए। 21 साल के जयनाथ ने पहली बार कुछ इस तरह के सुरूर का सामना किया था। हाल यह हुआ कि वो अपने सारे दुख दर्द भूल कर उमंगों की ठिठोली में मस्त हो गया। उसकी आँखों में मछलियां तैर रहीं थीं। ठंडी हवा जब उसके बालों को उड़ाती तब उसे प्रेम का एहसास होता । उस प्रेम का जिसे वो बुलंदशहर के एक घर में छोड़ आया था। जिसके कंगन बेच कर उसने लंदन के लिए थैला बाँधा । इस तरह से वो अपने दर्द से दूर गया या उसके और नज़दीक यह कहना मुश्किल है।

इसी मधहोशी में दस दिन कैसे बीत गए पता ही ना चला। बोट का गंतव्य फ्रांस था। वहां पहुंच गयी। वहां से दूसरी बोट आयी जो लोगों को फॉक्सटन ले गयी फॉक्सटन पहुंचने में इन्हें दो घंटे लगे। वहां से लंदन के लिए ट्रेन पकड़नी थी।

कुछ घंटे बाद जयनाथ लंदन के विक्टोरिया स्टेशन पर खड़ा था। उसने अपने भाई को खत में खुद के आने की खबर दे ही दी थी। बस बड़े भाई के आने की देरी थी। घड़ी की सुई...टिक...टिक...टिक...टिक..... टिक... आगे बढ़ रही थी। बड़े भाई का कुछ पता नहीं था । बगल से नीली चप्पल वाले वही पतले सरदार गाते निकले हु "सुहाना सफर और ये मौसम हसीं, हमें डर है हम खो न जाएं कहीं...!"

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