अहिल्याबाई होल्कर: वह रानी जिसने धर्म, शासन और न्याय का संतुलन रचा

इतिहास के विशाल फलक पर कुछ नाम ऐसे दर्ज होते हैं जो सत्ता के शिखर पर पहुँच कर भी अपनी सादगी, सेवा और न्यायप्रियता से अमर हो जाते हैं। भारत की ऐसी ही एक विरले उदाहरण हैं – मालवा की रानी अहिल्याबाई होल्कर।
मालवा की रानी अहिल्याबाई होल्कर। [Wikimedia Commons]
मालवा की रानी अहिल्याबाई होल्कर। [Wikimedia Commons]
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जहाँ अधिकांश राजा-रानियाँ अपने वैभव और युद्धों के लिए याद किए जाते हैं, वहीं अहिल्याबाई एक ऐसी शासिका थीं, जिन्होंने अपने जीवन को जनसेवा, न्याय, धर्म और निर्माण कार्यों के लिए समर्पित किया। उनके जीवन की कहानी केवल एक राजा की पत्नी बनने से लेकर एक स्वतंत्र और शक्तिशाली शासक बनने की यात्रा नहीं है, बल्कि यह एक नारी शक्ति की वह कथा है जो आज भी प्रेरणा देती है।

31 मई 1725 को महाराष्ट्र के चौंडी गांव में जन्मी अहिल्याबाई का जीवन साधारण पृष्ठभूमि से शुरू हुआ। पिता माणकोजी शिंदे एक परंपरागत, धार्मिक व्यक्ति थे जिन्होंने समाज की सीमाओं को लांघकर अपनी बेटी को शिक्षा दिलवाई।

उस काल में जब लड़कियों को न तो पढ़ने की अनुमति थी और न ही किसी प्रकार की सामाजिक भागीदारी की उम्मीद, अहिल्याबाई को न केवल पढ़ाया गया बल्कि उन्हें युद्ध कौशल, नीति और प्रशासन की समझ भी दी गई। यह बात ही उनके भविष्य के महान व्यक्तित्व की नींव बन गई।

भाग्य से मिला विवाह, पर जीवन का उद्देश्य बना सेवा

अहिल्याबाई को पहली बार मल्हारराव होल्कर ने एक मंदिर में देखा, वे तब मराठा साम्राज्य के एक शक्तिशाली सूबेदार थे। अहिल्याबाई की गंभीरता और धार्मिक आचरण से प्रभावित होकर उन्होंने उन्हें अपने पुत्र खांडेराव के लिए उपयुक्त जीवनसाथी समझा। 8 वर्ष की उम्र में अहिल्याबाई का विवाह खांडेराव होल्कर से हुआ।

खांडेराव उस समय न तो राजनीति में रुचि रखते थे और न ही जिम्मेदार थे। अहिल्याबाई ने उन्हें समझाया, प्रोत्साहित किया और धीरे-धीरे वे राज्य कार्यों में सक्रिय हुए। यही नहीं, वे युद्धों में भी भाग लेने लगे।

लेकिन किस्मत को कुछ और मंज़ूर था। 1754 में भरतपुर के युद्ध में खांडेराव वीरगति को प्राप्त हुए। अहिल्याबाई ने सती होने का निर्णय ले लिया, लेकिन उनके ससुर मल्हारराव ने उन्हें समझाया, “मैंने जो शिक्षा दी है, उसका प्रतिफल मुझे तुम्हारा जीवन देकर दो।”

यह वाक्य अहिल्याबाई की नियति को बदलने वाला बन गया। उन्होंने सती होने से इनकार कर दिया और जीवन को सेवा और शासन के लिए समर्पित कर दिया।

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