
भारतीय स्वाधीनता संग्राम वीरता के जाज्वल्य नायकों से भरा पड़ा है। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का उद्घोष भले ही 1857 में हुआ हो परंतु पराधीनता की तिलमिलाट से उकतायी माटी ने समय-समय पर उत्कृष्ट क्रांतिवीर जने। ऐसे ही एक स्वातंत्र्य प्रेमी नायक झारखंड के रांची स्थित शिलागाईं गांव के जनजाति समाज में 17 फरवरी, 1792 को जन्मे। उनका नाम बुधु भगत (Budhu Bhagat) था। उरांव जनजाति का संगठन करते हुए आगे बढने वाले बुधु ने अपने कौशल एवं साहस के दम पर "लरका विद्रोह" (Larka Vidroh) का नेतृत्व किया।
ऐतिहासिक गोरिल्ला युद्ध पद्धति से बुधु ने अंग्रेजों को छकाना शुरू किया। उनके नेतृत्व में सिल्ली, चोरेया, पिठौरिया, लोहरदगा और पलामू के जनमानस ने बरतानिया हुकूमत के दमन का प्रतिकार करना शुरू कर दिया। अंग्रेजों की नाक में दम करते हुए जब वे पकड़ में नहीं आए तो सरकार ने उन पर 1000 रुपए का पुरस्कार घोषित कर दिया।
लेकिन फिर भी बुधु अंग्रजों की पहुंच से दूर ही रहे, परंतु एक दिन सिलगाई गांव में उन्हें और उनके साथियों को अंग्रेजी सेना ने घेर लिया। उन्होंने उनका मुहंतोड़ जवाब देते हुए युद्ध प्रारम्भ तो किया लेकिन अंग्रेजों के अत्याधुनिक बंदूकों के आगे उनके तीर और तलवार बहुत अधिक समय तक टिक नहीं पाए। अंग्रेजों ने उन्हें आत्मसमर्पण करने की चेतावनी दी परंतु अपने स्वाभिमान की श्रेष्ठता बरकरार रखते हुए उन्होंने रणभूमि में ही वीरगति प्राप्त की। इसी युद्ध में उनके दोनों पुत्र उदय व करण,दोनों पुत्रियां रुनिया व झुनिया एवं भाई,भतीजे भी बलिदान हो गये।