स्वतंत्रता से सत्ता तक: सत्येंद्र नारायण सिन्हा का सियासी सफर बेमिसाल, राजनीति में बनाई खास पहचान

नई दिल्ली, 4 सितंबरको बिहार की माटी ने कई रत्न पैदा किए, लेकिन सत्येंद्र नारायण सिन्हा एक ऐसी शख्सियत थे, जिनका नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। प्यार से ‘छोटे साहब’ कहे जाने वाले सत्येंद्र नारायण सिन्हा का जन्म 12 जुलाई 1917 को औरंगाबाद के पोईवान गांव में हुआ था। सत्येंद्र बाबू ने स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही, बिहार के मुख्यमंत्री और भारतीय राजनीति के जननेता के तौर पर अपनी पहचान बनाई।
सत्येंद्र नारायण सिन्हा का सियासी सफर बेमिसाल
सत्येंद्र नारायण सिन्हा का सियासी सफर बेमिसालIANS
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सत्येंद्र बाबू का प्रारंभिक जीवन इलाहाबाद में लाल बहादुर शास्त्री के सान्निध्य में बीता। शास्त्री जी की सादगी और देशभक्ति का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। स्वतंत्रता संग्राम में उनकी सक्रियता ने उन्हें युवावस्था में ही राष्ट्रीय मंच पर पहचान दिलाई। आजादी के बाद उन्होंने बिहार की राजनीति को नई दिशा दी।

सत्येंद्र बाबू का स्वतंत्रता संग्राम से रिश्ता बचपन से ही गहरा था। एक बार किशोरावस्था में उन्होंने ब्रिटिश पुलिस के सामने गांधी टोपी पहनकर नारे लगाए, जिसके लिए उन्हें गिरफ्तार किया गया। जेल में भी उनकी हिम्मत नहीं टूटी। उन्होंने साथी कैदियों को संगठित कर भजन और देशभक्ति गीत गाए।

उनके पिता डॉ. अनुग्रह नारायण सिन्हा भी स्वतंत्रता सेनानी और बिहार के कद्दावर नेता थे। उन्हीं की राह पर चलते हुए सत्येंद्र बाबू के सिद्धांतवादी व्यक्तित्व ने बिहार की राजनीति में एक अलग मुकाम बनाया। छह दशकों के उनके राजनीतिक सफर में कई मील के पत्थर हैं।

बिहार के औरंगाबाद लोकसभा क्षेत्र से वे सात बार सांसद चुने गए, जिसे उन्होंने ‘मिनी चितौड़गढ़’ का गौरव दिया। 1989 में जब वे 72 वर्ष की आयु में मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने विकास के लिए ठोस कदम उठाए। इस दौरान उनकी नीतियों ने बिहार के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में प्रगति की नींव रखी। मुख्यमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल में उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर रुख अपनाया और प्रशासन को पारदर्शी बनाने की कोशिश की।

सत्येंद्र बाबू की राजनीति केवल सत्ता तक सीमित नहीं थी, यह जनसेवा का पर्याय थी। जयप्रकाश नारायण के ‘संपूर्ण क्रांति’ आंदोलन में उनकी भूमिका ने उन्हें आपातकाल के दौर में युवाओं का प्रेरणास्रोत बनाया।

शिक्षा मंत्री के रूप में उन्होंने मगध विश्वविद्यालय की स्थापना की, जिसने बिहार की शैक्षिक प्रगति को नया आयाम दिया। वहीं उनकी पत्नी किशोरी सिन्हा भी कम प्रेरणादायी नहीं थीं। वैशाली की पहली महिला सांसद के रूप में उन्होंने अस्सी और नब्बे के दशक में महिला सशक्तिकरण की मिसाल कायम की।

4 सितंबर 2006 को उनका निधन हुआ, पर ‘छोटे साहब’ की विरासत आज भी बिहार के लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

[SS]

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