
1950 में भारत ने खुद को एक तोहफ़ा दिया - संविधान। न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के सपनों को कागज़ पर उतारने वाली यह दस्तावेज़ सिर्फ़ क़ानून नहीं थी, बल्कि एक वादा था कि हर नागरिक गरिमा के साथ जी सकेगा। डॉ. भीमराव अम्बेडकर (DR. BR Ambedkar) के मार्गदर्शन में बना यह संविधान आज़ादी की असली पहचान बन गया। आज, आज़ादी के 77 साल बाद यह सवाल उठता है, क्या हमने सच में अपने वादे निभाए?
आशा से जन्मा संविधान
संविधान सभा को करीब 2 साल 11 महीने और 18 दिन लगे इस दस्तावेज़ को तैयार करने में। डॉ. अम्बेडकर (Dr. Ambedkar) की अध्यक्षता में बनी ड्राफ्टिंग कमेटी ने "हम भारत के लोग..." से शुरू होने वाली प्रस्तावना में लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समानता की नींव रखी।
यह उस दौर के लिए क्रांतिकारी था - इसमें मौलिक अधिकार, छुआछूत का अंत, और सभी के मताधिकार जैसी बातें शामिल थीं। लेकिन कागज़ से ज़िंदगी तक की यात्रा आसान नहीं थी।
कुछ वादे पूरे हुए:
भारत ने एक मज़बूत चुनावी लोकतंत्र के रूप में नियमित चुनाव करवाए।
नागरिकों को बोलने, वोट देने और न्याय पाने के अधिकार मिले।
शिक्षा और स्वास्थ्य में सुधार हुए, तकनीक ने गांव-गांव तक कनेक्टिविटी पहुंचाई।
लेकिन कई सपने अधूरे हैं:
आज भी लोगों के पास जाति, लिंग और आर्थिक समान्ता नहीं है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सेंसरशिप और डर के साये में रहती है।
न्याय पाने के लिए सालों तक अदालतों के चक्कर लगाने पढ़ते है।
आर्थिक अधिकार जैसे बेरोज़गारी, महंगाई और अमीरी-गरीबी मै अंतर आज भी मौजूद हैं।
भाईचारे और स्वतंत्रता के आदर्श, नफ़रत भरे भाषण, और सामाजिक बटवारे से चुनौती में हैं। कई मायनों में हम अभी भी उसी आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसके लिए संविधान बना था।
2025 में आज़ादी का मतलब
आज की आज़ादी सिर्फ़ अंग्रेज़ों के राज से मुक्ति नहीं है, यह डर, भेदभाव और पुरानी कुनीतियों से मुक्त होने की लड़ाई है। डिजिटल युग में इसका मतलब है ऑनलाइन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, डेटा प्राइवेसी, और बिना डर के असहमति जताने और सवाल पूछने का अधिकार। लेकिन जहां कुछ आज़ादियाँ बढ़ी हैं, वहीं कुछ छिनी भी गई हैं, जैसे बढ़ती निगरानी और ऑनलाइन उत्पीड़न।
Gen Z और नई राजनीतिक सोच
भारत की सबसे युवा पीढ़ी, राजनीति को पहले से कहीं ज़्यादा गहराई से समझती हैं। सोशल मीडिया, ऑनलाइन आंदोलनों और ताज़ा ख़बरों ने इन्हें बचपन से ही राजनीतिक रूप से जागरूक बना दिया है।
दिलचस्प बात है कि एक लिंग वैचारिक अंतर सामने आया है:
युवा पुरुष ज़्यादातर राष्ट्रवादी विचारों की ओर झुक रहे हैं, जहां मज़बूत नेतृत्व, परंपरा और सुरक्षा को अहमियत दी जाती है।
युवा महिलाएँ अधिक उदारवादी सोच रखती हैं, जो लैंगिक समानता, जलवायु बदलाव, LGBTQ+ अधिकार और सामाजिक न्याय के लिए आवाज़ उठाती हैं।
इस अंतर की एक वजह यह भी हो सकती है कि महिलाएँ रोज़मर्रा में असमानता का सामना करती हैं, जिससे वे बदलाव की तरफ़ ज़्यादा झुकती हैं, जबकि पुरुष अक्सर मौजूदा व्यवस्था से लाभ उठाते हैं। Gen Z के लिए अब “आज़ादी की लड़ाई” का मतलब विदेशी राज से मुक्ति नहीं, बल्कि व्यक्तिगत, डिजिटल और सामाजिक स्वतंत्रता को हासिल करना है।
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क्या हम सच में आज़ाद हैं?
डॉ. अम्बेडकर (Dr. Ambedkar) ने कहा था, “कितना भी अच्छा संविधान क्यों न हो, अगर उसे लागू करने वाले अच्छे नहीं हैं, तो वह बुरा साबित होगा।” हमारा संविधान आज भी एक मज़बूत और दूरदर्शी दस्तावेज़ है, लेकिन इसकी ताक़त तभी है जब हम, नागरिक, इसे निभाने की इच्छा रखें।
आज़ादी दिवस सिर्फ़ झंडा फहराने का दिन नहीं, बल्कि आत्मविश्वलेषण का दिन होना चाहिए। 77 साल बाद भी सवाल वही है, क्या हम उस भारत के क़रीब पहुँचे हैं जिसका वादा हमारे संविधान ने किया था, या हम अभी भी उसी मंज़िल की तलाश में हैं?
क्या आप जानते हैं?
भारतीय संविधान दुनिया का सबसे लंबा लिखित संविधान है, जिसमें 448 अनुच्छेद हैं।
इसमें कई देशों से विचार लिए गए — मौलिक अधिकार अमेरिका से, संसदीय प्रणाली ब्रिटेन से, और नीति-निर्देशक तत्व आयरलैंड से।
संविधान की हस्तलिखित मूल प्रति आज भी संसद भवन में हीलियम से भरे केस में सुरक्षित रखी गई है। (RH/BA)