सूर्यनारायण कपूर ने बताया कि बंटवारे के समय वह कक्षा पांच में पढ़ते थे। उनके पिताजी की कपड़े की बहुत बड़ी दुकान थी। लेकिन मई-जून , 1947 में हिंदुस्तान का बंटवारा कर उसे पाकिस्तान बनाया जा रहा था । ऐसी खबरें उन्हें रोज सुनने को मिलती रहती थी। धीरे-धीरे यह खबरें बढ़ती गई और दिन प्रतिदिन इलाके का माहौल बिगड़ता गया ।
सूर्यनारायण कपूर
झेलम , पाकिस्तान ।
बंटवारे के समय वह कक्षा पांच में पढ़ते थे। उनके पिताजी की कपड़े की बहुत बड़ी दुकान थी। लेकिन मई-जून , 1947 में हिंदुस्तान का बंटवारा कर उसे पाकिस्तान बनाया जा रहा था । ऐसी खबरें उन्हें रोज सुनने को मिलती रहती थी। धीरे-धीरे यह खबरें बढ़ती गई और दिन प्रतिदिन इलाके का माहौल बिगड़ता गया । हमें चारों ओर से यही खबर सुनने को मिलती कि फलां जगह किसी हिंदू भाई या बहन को मार दिया गया । किसी हिंदू का घर जला दिया गया ।किसी हिंदू बहन का अपहरण कर लिया गया और यह खबरें बढ़ती ही गई।
मेरे पिताजी इस बात से अधिक चिंतित थे कि माहौल खराब होने के कारण स्कूल भी बंद कर दिए गए थे। मेरे परिवार में कुल 7 लोग थे जिनमें हम तीन भाई, एक बहन, माता-पिता और साथ में एक बुआ भी थी। मैं अपने परिवार में सबसे छोटा था। इलाके के माहौल को देखते हुए पिताजी ने यह निर्णय लिया कि बच्चे अपनी बुआ के साथ हरिद्वार जाएंगे और जब पाकिस्तान का माहौल ठीक हो जाएगा तो लौट आएंगे।
11 अगस्त 1947 को पूरा परिवार हमें लाला मूसा स्टेशन छोड़ने आया था। मेरे नाना जी को अंबाला अपने समधी की तेहरवीं में जाना था तो वह भी हमारे साथ आए थे। बाहर के बिगड़ते हुए माहौल को देखकर पिताजी और बड़े भैया ने हमें समझाया था कि यदि रास्ते में कोई खतरा लगे तो ट्रेन के शौचालय में घुस जाना। लेकिन ट्रेन स्टेशन से निकलकर कुछ दूर चली और अचानक रुक गई।
कुछ ही देर में मेरे पास अल्लाह हू अकबर का नारे लगाने वाला झुंड खड़ा था। उन्होंने डिब्बे में घुसते ही हमला कर दिया हमारे पास एक सिख भाइयों का समूह बैठा था उनमें से एक की तो अंतड़ी तक बाहर निकल आई थी। किसी के सिर पर वार किया गया था तो किसी के शरीर के अन्य किसी अंग पर । पूरे डिब्बे में हाहाकार मच गया । हमारी बुआ हमें बचाने में लगी हुई थी और उन्होंने हमें किसी तरह शौचालय में बंद कर दिया। लेकिन बाहर से लगातार रोने और चिल्लाने की आवाज आती रही।
जिहादियों ने मारकाट मचा रखी थी। हम लगभग आधा घंटा शौचालय में बंद रहे ।आधे घंटे बाद अचानक गाड़ी चल पड़ी तो बुआ हमें बाहर ले आई । लेकिन रोने की आवाजें लगातार आ रही थी । चारों तरफ खून ही खून था कहीं सिर कटे पड़े थे तो कहीं पांव ,किसी की गर्दन तो किसी के हाथ चारों तरफ़ बहुत दुर्दशा थी। खैर गाड़ी लाहौर पहुंची और हम दूसरी गाड़ी में बैठकर हरिद्वार के लिए रवाना हो गए। लेकिन जो नजारा हमने ट्रेन में देखा वह बड़ा दयनीय था ।ऐसा हमने पहले कभी नहीं देखा था।
भगवान किसी की जिंदगी में ऐसा दिन न लाए। खैर इसके बाद हम हरिद्वार रहने लगे और लगभग डेढ़ महीने बाद पिताजी भी सपरिवार वहीं आ गए। मैंने अपने जीवन में बहुत संघर्षों से भरे दिन देखे लेकिन अब ठीक - ठाक अपना जीवन यापन कर रहा हूं। 1947 के बंटवारे के दिनों को कभी नहीं भुला सकता।
(PT)