23 सितंबर, 1908 को बिहार के बेगूसराय के सिमरिया में जन्म लेने वाले ननुआ के हृदय में बचपन से ही एक उच्च रचनाकार की आत्मा वास कर रही थी। यही ननुआ आगे चलकर भारतीय राजनीति और साहित्य जगत को जोड़ने वाला एक ऐसा कवि बना जिसके शब्दों के तलवार ने अंग्रेजों के होश उड़ा दिए। हमारे पुरौधा, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' बने, जी देश के वो कवि थे जिनकी कालजयी पक्तियाँ देश के हर तपके के नागरिक को ऊर्जा से भर जाती थी। बात चाहे विद्रोह की हो या फिर क्रांति, श्रृंगार और प्रेम की, रामधारी सिंह 'दिनकर' साहित्य के सभी विधाओं में निपुण रहे।
रामधारी सिंह धिनकर को राष्ट्रकवि कहकर भी बुलाया जाता है।
रामधारी सिंह दिनकर केवल कवि ही नहीं बल्कि एक राष्ट्र भक्त भी थे। 1962 में भारत-चीन के बीच हुए युद्ध के दौरान जवाहर लाल नेहरू और दिनकर के बीच हुआ एक वाक्या हमेशा ही याद आता है। 1962 के युद्ध में चीन से मिली हार के बाद वे इतने आक्रोशित हो गए थे कि, उन्होंने विरोधियों का ही नहीं बल्कि अपनी पार्टी की गलत नीतियों का भी खुलकर विरोध किया।
दिनकर चीन से मिली हार के बाद नेहरू जी की नीतियों और फैसलों से काफी नाराज थे। इसी दौरान एक कवि सम्मेलन में हुआ प्रसंग याद आता है। कवि सम्मेलन के दौरान नेहरू जी लड़खड़ा गए थे जिन्हें दिनकर जी ने संभाला था। नेहरू जी ने इसके लिए दिनकर जी को धन्यवाद दिया जिसके बाद दिनकर जी ने तत्काल ही जवाब दिया, 'इसमें धन्यवाद कि क्या आवश्यकता! वैसे भी जब-जब राजनीति लड़खड़ाई है, साहित्य ने ही उसे संभाला है।'
दिनकर जी अगर नीतियों का विरोध करते तो सफलता मिलने पर सरहाते भी थे। भारत को पाकिस्तान के खिलाफ मिली जीत के बाद दिनकर ने सरकार की नीतियों को काफी सराहा था।
रामधारी सिंह दिनकर जी की कविता के कुछ अंश -
आरती लिए तू किसे ढूंढ़ता है मूरख
मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे
देवता मिलेंगे खेतों में खलिहानों में
दिनकर जी राष्ट्रकवि होने के साथ-साथ एक जनकवि भी थे। जहां एक तरफ उन्हें अपनी जिम्मेदारियों का एहसास था, वहीं दूसरी ओर उन्हें अपने कर्तव्यों का भी ज्ञात था।
भारत सरकार ने उन्हें ता-उम्र निष्ठा भाव से मां हिंदी की सेवा करने के लिए साहित्य अकादमी और पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया था। 24 अप्रैल 1974 को दिनकर जी का निधन हो गया था।
(HS)